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________________ १५वीं १६वीं १७वीं, और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ४६५ कीर्तिसिंह वीर और पराक्रमी शासक था। उसने अपना राज्य अपने पिता से भी अधिक विस्तृत किया था । वह दयालु एवं सहृदय था। जैनधर्म के ऊपर उसकी विशेष आस्था थी। वह अपने पिता का आज्ञाकारी था, उसने अपने पिता के जैनमूर्तियों के खुदाई के अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। इसका पृथ्वीपाल नाम का एक भाई और भी था । जो लड़ाई में मारा गया था । कीर्तिसिह ने अपने राज्य को यहाँ तक पल्लवित कर लिया था कि उस समय उसका राज्य मालवे के सम कक्षका हो गया था। दिल्ली का बादशाह भी कोर्तिसिह की कृपा का अभिलापी बना रहना चाहता था । सन् १४६५ ( वि० सं० १५२२ ) में जौनपुर के महमूदशाह के पुत्र हुमैनशाह ने ग्वालियर को विजित करने के लिए बहुत बड़ी सेना भेजी थी। तब से कोर्तिसिह ने देहलो के बादशाह बहलोल लोदी का पक्ष छोड़ दिया था और जौनपुर वालों का सहायक बन गया था । सन् १४७८ (वि० स० १५३५ ) में हुसैनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी से पराजित होकर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़कर तथा भागकर ग्वालियर में राजा कीर्तिसिंह की शरण में गया था तब कीर्तिसिंह ने धनादि से उसकी सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुचाया भी था। इसके सहायक दो लेख सन् १४६८ और (वि० ० १५२५) सन् १८७३ ( वि० स० १५३० ) के मिन हे | कीर्तिसिह की मृत्यु सन् १४७६ (वि०स० १५३६ ) मे हुई थी । अतः इसका राज्य काल सम्वत् १५१० के बाद से स० १५३६ तक पाया जाता है' । इन दोनो क राज्यकाल में ग्वालियर में जैनधर्म खूब पल्लवित हुआ । रचनाकाल 1 कवि रडधू के जिन ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, यहा उनके रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार किया जाता है । कवि की सबसे प्रथम कृति श्रात्म-सम्बोध काव्य है । उसकी म० १४४८ की लिखित प्रति ग्रामेर भण्डार में सुरक्षित है । रइधू के मम्मत्त गुणनिधान और सुकोमलचरिउ इन दो ग्रन्थों में ही रचना समय उपलब्ध हुआ है । सम्मत्तगुणनिधान नाम का ग्रन्थ वि० स० १४९२ की भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार के दिन बनाया गया है और जो तीन महीने में पूर्ण हुआ था और सुकोशलचरिउ उसमे चार वर्ष बाद विक्रम सं० १४६६ में माघ कृष्णा दशम के अनुराधा नक्षत्र में पूर्ण हुआ है । गम्मत्तगुणनिधान में किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई उल्लेख नही है, हाँ सुकोशलचरिउ में पार्श्वनाथ पुराण हरिवंश पुराण और बलभद्रचरिउ इन तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि ये तीनों ग्रन्थ भी सवत् १८६६ से पूर्व रचे गये है और हरिवंश पुराण में त्रिपप्टशलाका पुरुषचरित ( महापुराण) मेघेश्वरचरित, यशोधर चरित, वृत्तसार, जीवधरचरित प्रोर पार्श्वचरित इन छह ग्रन्थों के रचे जाने का उल्लेख है, जिससे जान पड़ता है कि ये ग्रन्थ भी हरिवण की रचना से पूर्व रचे जा चुके थे । सम्मइ जिनचरिउ में, पार्श्वपुराण, मेघेश्वरचरित, त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरित ( महापुराण) बलभद्रचरित ( पउमचरिउ ) सिद्धचक विधि, सुदर्शनचरित और धन्यकुमारचरित इन सात ग्रन्थों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिससे यह ग्रन्थ भी उक्त सम्वत् से पूर्व रचे जा चुके थे । १. बहलोल लोदी देहली का बादशाह था उनका राज्य काल सन् १४५१ ( वि० स० १५०८) से लेकर सन १४८६ ( वि० सं० १५४६ ) तक ३८ वर्ष पाया जाता है । २. देखो, श्रोझा जी द्वारा सम्पादित टाट राजस्थान हिन्दी पृष्ठ २५४ ३. 'चउदमय वारराव उत्तरालि, वरिमइगय विक्कमरायकालि । वक्यत्तु जि जिरणवय समक्वि, भद्दव मासम्मि स- सेय पक्व । मिदिरिण कुजवारे समोई, मुहयारे सुहग्गा में जरणे ं । तिहु मास यहि पुष्णहूउ, सम्मत्तगुण। हिरिणह गधूउ ।" ४. "सिरि विक्कम समयंतरालि, वट्टतइ इंदु सम विभम कालि । चउदस्य संवच्छरइ अण्ण छण्णउ अहिपुरणु जाय पुण्ण । माह दुजि हिदमी दिम्म अरगुराहुरिक्ख पयडिय सकमि ॥”
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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