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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ ५५६ है। सरस्थगण के श्रीनन्दिपंडित देव तथा उनके बन्धु भास्करनन्दि पंडितदेव के समाधिमरण का उल्लेख है। (जैन लेख म० भा०४ पृ० ११३) । जिनचन्द्र नाम के भी अनेक विद्वान हो गए हैं : - एक जिनचन्द्र का उल्लेख स० १२२६ के विजोलिया के शिलालेख में है जो लोलाक के गुरु थे। कलसापुर (मैसूर) के सन् ११७६ के शिलालेख में बालचन्द्र की गुरुपरम्परा में गोपनन्दि चतुर्मुखदेव के बाद जिनचन्द्र का उल्लेख है। श्रवणबेलगोलक शिलालेख नं०५६ मे एक योगि जिनचन्द्र का उल्लेख है। चौथे जिनचन्द्रवे है। जिनका स० १४४८ (सन् १३६२) के लेख में जिनचन्द्र भट्टारक के द्वारा मूर्ति स्थापना का उल्लेख है। पाचवे जिनचन्द्र वे है जिनका उल्लेख माधवनन्दी को गुरु परम्परा में गुणचन्द्र के बाद जिनचन्द्र का नाम दिया है। छठे जिनचन्द्र भास्करनन्दि के ग हैं। अोर सातवें जिनचन्द्र मूलसघ के भट्टारक शुभचन्द्र क पधर है, जो म० १५०७ में प्रतिष्ठिन हा थे । इनका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी है। इन जिनचन्द्रों में से कोन से जिनचन्द्र भास्करनन्दि के गुरु थे, यह निश्चित करना कठिन है। भास्करनन्दि ने अपनी मूखवोधत्ति के तीसरे अध्याय के तोसरे मूत्र की टीका में निम्न पद्य उद्धत किया हैं :--जो उडढा के गम्कृत पच गग्रह के जीव समास प्रकरण का १६८ वां पद्य है : द्विष्कापोताथ का पोता नील नीला च मध्यमा । नीलाकृष्णे च कृष्णाति कृष्णरत्नप्रभादिषु ॥ पंच स०१-१६८ पृ०६७० इसके अतिरिक्त भास्करनन्दी ने चतुर्थ अध्याय के दूसरे सूत्र की टीका में निम्न पद्य उद्धृत किये हैं "लेश्या योगप्रवृत्तिः स्यात्कषायोदयरञ्जिताः। भावतो द्रव्यतोऽङ्गस्य छविः षोढोमतो तु सा" ॥११८४ "पडलेश्यांगा मतेऽन्येषां ज्योतिष्का भौमभावनाः । कापोतमुद्गगोमूत्र वर्णलेश्यानिलाजिनः ॥१-१६० "लेश्याश्चतुर्युषट् च स्युस्तिस्रस्तिस्रः शुभास्त्रिषु । गुणस्थानेषु शुक्लका षषु निलेश्यमन्तिमम् ॥१-१६५ प्राद्यास्तिस्रोप्य पर्याप्तष्व संख्येयाब्दं जीविष । लेश्याः क्षायिक सदृष्टौ कापोतास्या ज्जघन्यका" ॥१-१६६ षटन्ट-तियंक्ष तिस्त्रोऽन्त्यास्तेष्वसंख्याब्द जीविष । एकाक्ष विकला संजिष्वाद्य लेश्यात्रयं मतम्" ।।१-१६७ इसमे स्पष्ट है कि भास्करनन्दि ने उक्त पद्य डड्ढा के संस्कृत पचसंग्रह से उद्धत किये हैं। डडढा का समय विक्रम की ११वी शताब्दी का पूर्वार्ध है। और भास्करनन्दि उसके बहुत बाद हुए हैं। शान्तिराज शास्त्री ने 'मुखबोधावृत्ति की प्रस्तावना में भास्करनन्दी का समय ईसा की १३वीं शताब्दी का अन्तिम भाग बतलाया है। मेरी राय में इनका समय विक्रम की १४वीं शताब्दी होना संभव है ग्रन्थ सामने न होने से उस पर इस समय विशेष विचार नहीं किया जा सकता। भास्करनन्दी की दूसरी कृति ध्यानस्तव है। जिसमें मय प्रशस्ति पद्यों के १०० पद्य हैं, जिनमें ध्यान का वर्णन किया है इसका ध्यान से समीक्षण करने पर उसपर तत्त्वानशासनादिग्रन्थों का प्रभाव परिलक्षित होता है। १. जैन लेख स० भा० ४ पृ० २०१ २. जैन लेख संग्रह भा० १ पृ० ११५ ३. जैन लेख सं०भा०४पृ० २८७
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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