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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि ४५५ सप्पउ भणइ मा परिहरहु पर उवयार चरत्थु । ससि-सूर दुहु ग्रंथणि अण्ण हं कवण थिरत्थु ॥ ३ यह जीव गुरुतर गंभीर पाप करके शरीर सरक्षणार्थ धन का संचय करता है, कवि सुप्रभ कहते है कि धन रक्षित वह शरीर दिन पर दिन गलता जाता है, ऐसी अवस्था में धन-धान्यादि अन्य परिग्रह कैसे नित्य हो सकते हैं। जसु कारणि धन संचइ पाव करे वि गहीर । तं पिच्छह सुप्पउ भणइ, दिणि दिणि गलइ सरीरु ॥३६ जो पुरुष दोनों को धन देता है. सज्जनों के गुणों का आदर करता है । और मन को धर्म में लगाता है । कवि सुप्रभ कहते है कि विधि भी उसकी दासता करता है। धणु दीणहं गुण सज्जणहं मणु धम्महं जो देइ । तह पुरिसे सुप्पउ भणइ विही दासत्तु कोइ ॥३८ जिस तरह अपने वल्लभ (प्रिय) का ध्यान किया जाता है वैसा यदि प्ररहंत का ध्यान किया जाय तो कवि सुप्रभ कहते हैं कि तव मनुष्यों के घर के आंगन में ही स्वर्ग हो जाय।। जिम भाइज्जइ वल्लहउ तिमजइ जिय अरिहंतु । सुप्पउ भणइ ते माणसहं सग्गु रिंगण हुतु ॥६ इस तरह यह वैगग्य मार दोहा भावात्मक उपदेश का सुन्दर ग्रन्थ है। दोहों की भाषा हिन्दी के अत्यन्त नजदीक है। इससे यह ग्रन्थ १८वी शताब्दी का जान पड़ता है। विद्यानन्द मलसंघ बलात्कारगण सस्वतीगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान राय राजगुरुमंडलाचार्य महा वादवादीश्वर सकल विद्वज्जन चक्रवर्ती सिद्धन्ताचार्य पूज्यपाद स्वामी के शिष्य थे। शक मं० १३१३ या १३१४ (सन् १३९२ ई०) अगिरस संवत्सर में फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की दशमी शनीवार के दिन विद्यानन्द के नाम पर निषिधि का निर्माण किया गया था। अत: मलखेड के यह विद्यानन्द ईसा को १५वों सदी के विद्वान है। ___ जैनिज्म इन साउथ इडिया पृ० ४ २२ भास्करनन्दी प्रस्तुत भास्करनन्दी सर्वसाधु के प्रशिप्य और मुनि जिनचन्द्र के शिष्य थे। जैसा 'सुखबोधा' नामक तत्त्वार्थवृत्ति को प्रशस्ति के निम्न पद्यो से प्रकट है : "नो निष्ठोवेन्न शेते वदति च न परं एहि याहीति जातु । नो कण्डूयेत गात्र व्रजति न निशि नोद्धाट्येवार्नधत्ते । नावष्टं नाति किञ्चिद् गुणनिधिरिति यो बद्धपर्यङ्कयोगः । कृत्वा संन्यासमन्ते शुभगतिरभवत्सर्वसाधु प्रपूज्यः ॥२ तस्यासीत्सुविशुद्धदृष्टिविभवः सिद्धांतपारंगतः। शिष्यः श्रीजिनचन्द्रनामकलितश्चारित्र भूषान्वितः ।। शिष्यो भास्करनन्दिनामविबुधस्तस्या भवत्तत्ववित तेनाकारि सुखाविबोधविषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटं । भास्करनन्दी' नाम के एक विद्वान का उल्लेख लक्ष्मेश्वर (मैसूर) के सन् १०७७-७८ के लेख में मिलता १. एक भास्करनन्दी का उल्लेख पारा जैन सिद्धान्त भवन की न्याय कुमुदचन्द्र की लिपि प्रशस्ति में सौख्यनन्दी के प्रशिष्य और देवनन्दी के शिष्य भास्करनन्दी का उल्लेख है, जो उनसे भिन्न हैं । (अनेकान्त वर्ष १ पृ० १३३
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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