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________________ .५२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ प्रस्तुत कोश का भाष्य लिखते हा अमरकीति ने परम भट्रारक यश कीति, अमरसिह, हलायुध, इन्द्रनन्दी, सोमदेव, हेमचन्द्र और आशाधर आदि के नामों का उल्लेख करते हुए महापुराण सूक्त मुक्तावली, हेमीनाममाला, यशस्तिलक, इन्द्रनन्दी का नीति सार और प्राशाधर के महाभिषेक पाठ का नामोल्लेख किया है। इनमें पाशाधर का समय स० १२४६ से १३०० तक है । अत अमरकीति इसके बाद के विद्वान ठहरते है। यह १३वी शताब्दो के उपान्त्य समय के या १४ वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान होने चाहिए ! हस्तिमल्ल इन क पिता का नाम गोविन्द भद्र था, जो वत्सगोत्री दक्षिणी ब्राह्मण ।। उन्धी प्राचार्य समन्तभद्र के 'देवागमस्तोत्र' को सुनकर सदृष्टि प्राप्त की थी-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्या दृष्ट का परित्याग कर अनेकान्तरूप सम्यकदष्टि के श्रद्धालु बने थे। उनके छह पुत्र थे.-श्री कुमार, सत्यवाक्य, देवर वल्लन, उदय और वर्धमान '। ये सभी पूत्र सस्कृतादि भापाओ के मर्मज्ञ और काव्य शास्त्र के अच्छे जानकार एव कवि थे। हस्तिमल्ल कवि का असली नाम नहीं है। असली नाम कुछ और ही रहा होगा। यह नाम उन्हे सरण्यापुर में एक मदोन्मत्त हाथी को वश में करने के कारण पाण्ड्य राजा द्वारा प्राप्त हुअा था। उस समय राज सभा में उनका अनेक प्रशसा वाक्य से सत्कार किया गया था। हस्ति युद्ध का उल्नेख मुभद्रा नाटक में कवि ने स्वय किया है। उसमें जिन मुनि का रूप धारण करने वाले किसी धर्त को भी परास्त करने का उलाग्य है । कवि के सरस्वती स्वयवर वल्लभ, महा कवि तल्लज पार 'मूक्तिरत्नाकर' विरुद थे । कवि हस्तिमल्ल गृहस्थ विद्वान थे । इनके पुत्र का नाम पायव पांडत था। जा अपन पिता के समान ही यशस्वी, शास्त्र ममज्ञ र धर्मात्मा था। हस्तिमल्ल न अपनी काति का लोक व्यापी बना दिया था। ओर स्याद्वादशासन द्वारा विशुद्ध कीति का अर्जन किया था। वे पूण्य मूर्ति और अशेप कवि चावी कहलात थे। तया परवादिरूप हस्तियो के लिये सिह थे । अतएव हस्तिमल्ल इस सार्थक नाम से लोक मे विथुन थ। इन्हे अनेक विरुद अथवा उपाधिया प्राप्त थी, जिनका समुल्लेख कवि ने स्वय विक्रान्त कौरव नाटक में किया है। 'राजा वलाकथे' के कर्ता कवि देवचन्द्र ने हस्तिमल्ल को 'उभय भाषा कविचक्रवर्ती' सूचित किया है। कविवर हस्तिमन ने स्वय अपने को कनड़ी आदि पुराण की पुष्पिका मे उभय भाषा चक्रवर्ती लिखा है। ऐसा जैन साहित्य अओर इतिहास से ज्ञात होता है। इससे वे सस्कृत ओर कनड़ी भाषा के प्रोढ़ विद्वान जान पड़ते है। उनके नाटक तो कवि को प्रतिभा क सद्योतक है ही, किन्तु जैन साहित्य में नाटक परम्परा क जन्मदाता है। मेरे ख्याल में शायद उस समय तक नाटक रचना नही हई था। कविवर हस्तिमल्ल ने इस कमी को दूर कर जैन समाज का बड़ा उपकार किया है। यह उस समय विक्रन्त कौरव विक्रन्तकोख १. गोविन्द भट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्वजित.। देवागमन मूत्रम्यश्रुत्या सद्दर्शनाचिन । अनेकान्तमनं तत्त्व बहुमन विदावर., नन्दनातम्य सजाता वाधिकाग्विनकोविदः ।। दाक्षिणात्या जयन्त्यत्र स्वर्णयक्षीप्रसादत., श्रीकुमारकविः सत्यवाक्यो देवरबल्लभः ।। उद्यद्भूषणनामा च हस्तिमल्लाभिधानका ; वर्धमानकविश्चति पड् भूवन कवीश्वरः । २. श्रीवत्मगोत्रजनभूपणगोरभट्टप्रेमैकधामतनुजो भुविहस्तियुद्धात् । नाना कालाम्बुनिधिपाण्डचमहीश्वरेण दलोक. शम्मसि सत्कृतवान् बभूव ।। ३. सम्यक्त्व सुपरीक्षित मदगजे मुक्ने सरण्यापुरे । चास्मिन्पाण्ड्यमहेश्वरण कपटाद्धन्तु म्वमभ्यागते (त)। शेलूष जिनमुद्धधारिणमपाम्यासौ मदध्वसिना । श्लोकेनापिमदेभ मल्ल इनि य. प्रख्यातवान्सूरिभि ।।-सुभद्रा, सम्यक्त्वस्य परीक्षार्थ मुक्त मत्तमनगजम् । यः मरण्यापुरे जित्वा हम्तिमल्लेति कीतिन ।। ४. 'इत्युभयापा कविचक्रवति हम्निमल्ल विरचित पूर्वपुगण महाकथाया दशमपर्वम् ।" -आदि पु० पुष्पिका
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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