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________________ ४४४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास- भाग २ उस पर पात्रमण कर दिया । इन्द्रसेन अोर उपेन्द्र मेन दोनो की सेना ने बडी वीरता से युद्ध किया, जिससे देवसेन की सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। कुमार वराग ने पाकर देवसेन की सहायता की और इन्द्रसेन पराजित हो गया। ललितपुर क राजा देवमेन कुमार के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर उसे अपनी पुत्री सुनन्दा और प्राधा राज्य प्रदान करता है। एक दिन गजा की मनोरमा नाम को पूत्री कुमार के रूप सौन्दर्य को देखकर आसक्त हो जाती है, और विरह मे जलने लगती है। मनोरमा कुमार के पास अपना दूत भेजती है । पर दुराचार से दूर रहने वाला कुमार इवार कर देता है । मनोरमा चिन्तित और दुखी होती है। वराग के लुप्त होजाने पर सुपेण उत्तम पुर के राज्य कार्य को सम्हालता है परन्तु वह अपनी अयोग्यतामो के कारण शामन में असफल हो जाता है। उसकी दुर्बलता अोर धर्ममेन का वृद्धावस्था का अनुचित लाभ उठाकर वतुलाधिपति उत्तमपुर पर आक्रमण कर देता है। धर्म मेन ललितपुर के राजा से सहायता मागता है। वराग इस अवगर पर उत्तगपुर जाता है, और वकुलाधिपति को पराजित कर देता है । पिता-पुत्र का मिलन हाता है, और प्रजा वगग का स्वागत करतो है। बह विधियो को क्षमाकर गज्य प्रशासन प्राप्त करता है। और पिता की अनमति गे दिग्विजय करने जाता है पर अपने नये राज्य की राजधानी सरस्वती नदी के किनारे पानर्तपूर को बमाता है। वगग ने प्रानपुर मे सिद्धायतन नाम का चैत्यालय निर्माण कराया । अोर विधि पूर्वक उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। एक दिन ग्राम महतं मे गजा वर ग न तल ममाप्त होत हा दापक का देखकर दह-भागों में विरक्त हो जाता है ग्रार दाक्षा लेने का विचार करता हे परिवार के व्यक्तिगो ने उम दीक्षा लेने से रोकन का प्रयत्न किया, किन्तु वह न माना । आर वग्दत्त केवली के निकट दिगम्बर दीक्षा धारण को। प्रार तपश्चरण द्वारा प्रात्ममाधना करता हुआ अन्त में तपश्चरण मे सर्वार्थ सिद्धि विमान को प्राप्त किया। उसकी स्त्रियो ने भो दाक्षा ली उन्होंने भी अपनी शक्ति अनुसार तपादि का अनुष्ठान किया। श्रार यथायोग्य गति प्राप्त की। मंगराज (द्वितीय) यह 'कम्म' कल के विश्वामित्र गोत्रीय रेम्माई रामरस का पुत्र था। यह अभिनव मगराज के नाम से प्रसिद्ध है। इसने मगगज निघण्टु या अभिनव निघण्ट नाम का कारा बनाया है। कवि ने शशिपूर के सोमेश्वर के प्रमाद से शक म० १३२० (सन १३६८ ई०) मे उक्त काप को समाप्त किया है। अतः कवि का समय ईसा का १४वी शदी का अन्तिम भाग है। अभयचन्द्र यह कुन्दकन्दान्वय देशीय गण पुस्तक गच्छ के विद्वान जयकाति के शिष्य थे । यह वही राय राजगुरुमण्डलाचार्य महाबाद वादीश्वर रायवादी पितामह अभयचन्द्र मिद्धन्न देव जान पड़ते है जिन्होंने साख्य, योग, चार्वाक बौद्ध. भट प्रभाकर आदि अनक वादियो को शास्त्रार्थ में विजित किया था। शक स० १३३. (ई० सन् १४१५) में नवे गहस्थ शिप्य वाल गाड़ ने समाधिमरण किया था । इनका समय १३७५-१४०० ई० के लगभग सुनिश्चित है। यही अभयचन्द्र लघीयस्त्र भयवृत्ति के टीकाकार जान पड़ते है । गुणभूषण यह मलमेघ व विद्वान मागपचन्द्र के गाय विनयचन्द्र मान के शिप्य त्रैलोक्यति थे उनके शिप्य गुण १देखो, एपिग्राफिया कर्नाटिया सारख नानृाना १३६ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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