SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेरहवीं और चौदवहीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि कवि के वरांग चरित का संक्षिप्त रूप है, कवि वद्धमान ने इसमें धार्मिक उपदेशों और कुछ वर्णनों को निकाल कर कथानक की रूप-रेखा ज्यों की त्यों रहने दी है, ऐसा डा० ए० एन० उपाध्ये ने लिखा है। जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्य से स्पष्ट है : गणेश्वरैर्या कथिताकथावरावराङ्गराजस्य सविस्तरं पुरः। मयापि संक्षिप्य च सैव वर्ण्यते सुकाव्यवन्धेन सुबुद्धि वधिनी ।। कवि वर्द्धमानने राजा वगग के कथानक में धर्मोप देश को कम कर दानिक और धार्मिक चर्चाओं को बहुत संक्षिप्त रूप में दिया है । पर जटिल मुनि के परांग चरित्र का उस पर पूरा प्रभाव है। वरांग का चरित इस प्रकार है - विनीतदेश में रम्या नदी के तट पर उत्तमपुर ना-: का नगर हे उममे भोजवंशका राजा धर्म मेन राज्य करता था, उसकी गुणवती नाम की सुन्दर पार रूपवती पटगनी थी। समय पाकर उसके एक पुत्र हआ जिसका नाम वरांग रक्खा गया। जब वह युवा हो गया, तब उसका विवाह ललितपुर के राजा देवमेन की पुत्री मनदा, विन्ध्यपूर के राजा महेन्द्रदत्त की पुत्री वप्मती, सिंहपुर के राजा द्विपन्तप की पुत्री यशोमती, इप्टपूरी के गजा सनत्कुमार की पुत्री वसुन्धरा, मलयदेशके अधिपति मकरध्वज की पुत्री अनन्त सेना, चक्रपुर के राजा ममुद्रदत्त की पुत्री प्रियव्रता, गिरिव्रजनगर के राजा वाह्वायुध को पुत्री गुकंशो, श्रीकोशल पुरी के राजा सुमित्रसिंह की पुत्री विश्वसेना' वारांगदेश के राजा विनयन्धर की पुत्री प्रियकारिणो,अोर व्यापारी की पुत्री धनदत्ता के साथ होता है । वरांग इनके साथ सांसारिक सुख का उपभोग करता है। एक दिन अरिष्टनेमिके प्रधान गणधर वरदन उत्तमपुर में आये. राजा धर्म मेन मनिवदना को गया। राजा के प्रश्न करने पर उन्होंने ग्राचारादिका उपदेश दिया। वगंग के पळनेर उन्होंने सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का विवेचन किया। उपदेश से प्रभावित हो वरांग ने अणव्रत धारण किये । और उनकी भावनाओं का अभ्यास प्रारम्भ किया। तथा राज्य सचालन और अस्त्र-शास्त्र के सचालन में दक्षता प्राप्त की राजा धर्मसेन वरांग के श्रेष्ठ गुणों को प्रशंसा सुनकर प्रभावित हुग्रा और तीन सौ पुत्रोंके रहते हए वरांग को युवराज पद पर अभिपिक्त कर दिया। वरांग क अभ्युदय से उसको सौतेली मां सुपेणा तथा मूतेले भाई सण को ईर्पा हई । पीर मत्री सुबुद्धि से मिलकर उन्होंने पड़यत्र किया। मत्री ने एक शिक्षित घोड़ा वरांग को दिया। वरांग उस पर बैठते ही वह हवा से बात करने लगा। वह नदी, सरोवर, वन और अटवी को पार करता हमा अागे बढता है ओर वराग को एक कुएं में गिरा देता है । वरांग किसी तरह कुए से निकलता है,और भूख प्यास से पीडित हो पागेबढ़ने पर व्याघ्र मिलता है हाथी की सहायता से प्राणों की रक्षा करता है, और एक यक्षिणी अजगर से उसकी रक्षा करती है, और वह उसके स्वदार सन्तोप व्रत की परीक्षा कर सन्तुष्ट हो जाती है। वन में भटकते द्वारा वरांग को भील बलि के लिये पकड़ कर ले जाते हैं। किन्तु सर्प द्वारा दशित भिल्ल राज के पुत्र का विष दूर करने से उसे मक्ति मिल जाती है। वक्ष पर रात्रि व्यतीत कर प्रात: सागरवद्धिसार्थपति मे मिल जाता है। सार्थपति के साथ चलने पर मार्ग में बारह हजार डाकू मिलते हैं सार्थवाह का उन डाकूओं से युद्ध होता है । सार्थवाह को सेना युद्ध से भागती है इससे सागरवृद्धि को बहुत दुख हुआ। सकट के समय वरांग ने सार्थवाह से निवेदन किया कि आप चिन्ता न करें मैं सब डाकुओं को परास्त करता हूँ। कुमार ने डाकुओं को परास्त किया, और सागरवद्धि का प्रिय होकर सार्थवाहों का अधिपति बन ललितपुर में निवास करने लगता है। ___ इधर घोड़े का पीछा करने वाले सैनिक हाथी घोड़ा लौट आये, वराग का कही पता न चला, इससे धर्म सेन को बड़ी चिन्ता हुई। राजाने गुप्तचरों को कुमार का पता लगाने के लिये भेजा वे कुएं में गिरे हुये मृत अश्व को देखकर और कुमार के वस्त्रों को लेकर वापिस लौटे। उन्हें ढढ़ने पर भी कुमार का कोई पता न लगा। अंत: पुर में करुणा का समुद्र उमड़ पाया। मथुरा के राजा इन्द्रसेन का पुत्र उपेन्द्रसेन था इस राजा ने एक दिन ललितपुर देवसेन के पास अपना दूत भेजा, और अप्रतिमल्ल नामक हाथी की मांग की, देवसेन द्वारा हाथी क न दिये जाने पर रुष्ट हो मथराधिपति ने
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy