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________________ ४३६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ श्री जैनागम शब्दशास्त्र-भरत छन्दोमिमुख्यादिक वेत्री चन्द्रमतीति चारुविनया तस्या विवोध्य शुभा ॥ श्वेताम्बरीय योगशास्त्र पर दिगम्बरीय विद्वान द्वारा लिखी गई यह टीका अवश्य प्रकाशनीय है। उससे कितनी ही बातों पर नया प्रकाश पड़ेगा। बालचन्द कवि यह मलसंघ देशिय गण दंग नेश्वर शाखा के विद्वान नेमिचन्द्र पण्डितदेव के शिष्य थे । इनकी एक मात्र कति 'उद्योगमार' है, जो कनड़ीभापा में रचा गया है। कवि ने ग्रन्थ में अपना नाम व्यक्त नही किया। किन्तु निम्न पद्य में अपने को नेमिचन्द्र का शिप्य सूचित किया है: थ तनिधि विमलदयाम्बुधिविततयशोधामनेमिचन्द्र मुनीन्द्रः। श्रुतलक्ष्मी द्वितयक्कं सुतनोनिसि सुतत्वदशियेति सुवुदरिदे ।। श्रवण बेलगोल के शक स० १२०५, सन् १८३ ई. के लेख में महामण्डलाचार्य श्री मलसंघीय इंगलेश्वर देशीयगणाग्रगण्य गजगम नेमिचन्द पण्टिन देव का वर्णन कर उनके शिष्य वालचन्द का उल्लेख किया है । इससे यह ईसा की १३वी शताब्दी के अन्तिमचरण और वि. की १४वी शताब्दी के कवि हैं। देवसेन (भावसंग्रह के कर्ता) देवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गए है। उनग भावसंग्रह के कर्ता वे देवमेन हैं जो विमलमैन के शिष्य थं । दर्शनसार वं. कर्ता देवमेन इन से भिन्न है। उनका समय विक्रम की १०वीं शताब्दी है। किन्तु भावसंग्रह के कर्ता देवसेन मोमदेव और राजदोखर के बाद के विद्वान है। दर्शनसार के कर्ता विमलसेन के गिप्य नहीं थे, इससे भी दोनो की पृथकता स्पष्ट है । भावनग्रह के कर्ता उनमे पश्चाद्वी विद्वान् हैं। भावसंग्रह में ७०१ गाथाएं हैं जिनमें चौदह गुणस्थानों का वर्णन किया गया है। प्रथम गणस्थान के वर्णन में मिथ्यात्व के पांच भेदों का उल्लेख करते हा ब्रह्मवादियों को विपरीत मिथ्यादष्टि बतलाया है ओर लिखा है कि व जल से शुद्धि मानते है, मांससे पितरों की तृप्ति, पशुघात से स्वर्ग और गौ के स्पर्ग से धर्म मानते हैं । इसका विवेचन करते हुए स्नान दूपण और मास दूपण का कथन किया है और उनकी आलोचना की है। प्रस्तुत ग्रन्थ मलसघ कं। पाम्नाय का प्रतीत नहीं होता, क्याकि उसमें कितना ही कथन उस ग्राम्नाय के विरुद्ध और असम्बद्ध पाया जाता है। पचम गुणस्थान का वर्णन लगभग २५० गाथाना में किया गया है। किन्तु उसमें थावक के १२ व्रतों के नाम ओर अप्टमूलगुणो के नाम तो गिना दिये किन्तु उनके स्वरूपादि का कथन नहीं किया और न सप्त व्यसन और ११ प्रतिमाओं का स्वरूप ही दिया। हां दान पूजादि विषय का कथन विस्तार से दिया है। इस गुणस्थान के वर्णन में गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के भेद तो कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार बतलाए हैं किंतु सामायिक के स्थान में त्रिकाल सेवा का स्थान दिया गया है। भावसग्रह में त्रिवर्णाचार के समान ही आचमन, सकलीकरण, यज्ञोपवीत और पचामत अभिषेक का विधान पाया जाता है। इतना ही नहीं कितु इन्द्र, अग्न, काल, नैऋत्य, वरुण, पवन, यक्ष, सोम, दश दिक्पालों की उपासना, भगवान का उवटना करना, शास्त्र तथा युवति वाहन सहित ग्राह्वान करके बलि चर आदि पूज्य - .. - - -- - - - - -- ---- १.टीका के विशेष परिचय के लिये देखें. अनेकान्त वर्ष २० कि०३ में मुख्तार श्री जुगलकिशोर का लेख पृ० १०७ २. जैन लेग्य स० भा० १ पृ० १५१-२ ३. सोममेन कृत विवर्णाचार में भी दश दिक्पालो का, आयुध, वाहन, शस्त्र और युवति सहित पूजने का विधान है-ओं इद्राग्नि यम नेऋत्य वरुण पवन कुवेरेशान धरण सोम्य: सर्वेत्यायुध वाहन युवति सहिता पायात आयात इद मघं
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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