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________________ ४३५ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य और कवि चित-सा है कि वे धारावासी प्रभाचन्द्राचार्य जो माणिक्यनन्दि के शिष्य थे उक्त टीकाओं के कर्ना नहीं हो सकते । समय- विचार प्रभाचन्द्र का पट्टावलियों में जो समय दिया गया है, वह प्रवश्य विचारणीय है । उसमें रत्नकीर्ति के पट्ट पर बैठने का समय स० १३१० तो चिन्तनीय है ही । सं० १४८१ के देवगढ़वाले शुभचन्द्र वाले शिलालेख में भी रत्न - कीर्ति के पट्ट पर बैठने का उल्लेख है, पर उसके सही समय का उल्लेख नही है । प्रभाचन्द्र के गुरु रत्नकीर्ति का पट्टकाल पट्टावली में १२६६-१३१० बतलाया है। यह भी ठीक नहीं जंचता, सभव है वे १४ वर्ष पट्टकाल में रहे हों । किन्तु वे अजमेर पट्ट पर स्थित हुए और वही उनका स्वर्गवास हुआ। ऐसी स्थिति में समय सीमा को कुछ बढ़ा कर विचार करना चाहिए, यदि वह प्रमाणों यादि के आधार मे मान्य किया जाय तो उसमें १०-२५ वर्ष की वृद्धि अवश्य होनी चाहिये, जिससे समय की संगति ठीक बेठ सके | आगे पीछे का सभी समय यदि पुष्कल प्रमाकी रोशनी में चर्चित होगा, तो वह प्रायः प्रामाणिक होगा । आशा है विद्वान् लोग भट्टारकीय पट्टावलियां में हुए समय पर विचार करेंगे, । दिये भट्टारक इन्द्रनन्दी (योगशास्त्र के टीकाकार) यह काष्ठासंघान्तर्गत माथुरसंघ के विद्वान अमरकीति के शिष्य थे। जिन्हें इन्द्रनन्दिने चतुर्थागमवेदी मुमुक्षुनाथ ईशिन्, अनेक वादिव्रज सेवितचरण और लोक में परिलब्धपूजन जैसे विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। यथा - लसच्चतुर्धागम वेदिनं परं मुमुक्षुनाथा :मरकीर्तिमीशिनम् । अनेकवादिव्रजसेवितक्रमं विनम्यलोके परिलब्धपूजनम् ||२|| जिना (निजा) त्मनो ज्ञानविदे प्रशिष्टां विद्वद्विशिष्टस्य सुयोगिनां च । योगप्रकाशस्य करोमि टीकां सूरीन्द्रनन्दीहितनन्दिनंवं ॥ ३ यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे । इन इन्द्रनन्दि की एक मात्र कृति श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र की टीका है । जिसका नामकर्ता ने योगीरमा, सूचित किया है। जैसा कि 'टीका के योगिरमेन्द्र मुनियः' वाक्य से जाना जाता है। इस टीका की एक प्रति स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तार को करंजाभंडार से माणिक चन्द्र जी चवरे द्वारा प्राप्त हुई थी। और जिसे भट्टारक इन्द्रनन्दि ने जैनागम, शब्दशास्त्र भरत (नाट्य) और छन्द शास्त्रादि की विज्ञा चन्द्रमता नाम की चारु विनया (विनयशील) शिष्य के बोध के लिये बनाई थी। जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्य वाक्यों से स्पष्ट है " श्री जैनागमशब्दशास्त्र भरत छन्दोभिमुख्या दिकवेत्री चन्द्रमतीति चारुविनया तस्या विबोध्यं शुभा ।। " टीका सुन्दर और विषय की प्रतिपादक है। इस टीका का विशेष परिचय अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ पृ० १०७ में देखना चाहिये। इस टीका का तुलनात्मक अध्ययन करने से योगशास्त्र की मल स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ेगा। टीका में रचना समय दिया है। जिससे इन्द्रनन्दी का समय वि० सं० १३१५ निश्चित हैं । हेमचन्द्र के ८६ वर्ष बाद टीका बनी है। हेमचन्द्र का स्वर्गवास स० १२२६ में हुआ है । प्रस्तुत टीका ११वं ईश्वर सम्वत्सर ११८० ( वि० सं० १३१५ ) में चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन बनाकर समाप्त की गई है । खाष्टेशे शरदीतिमासिच शुचौ शुक्ल द्वितीया तिथौ, टीका योगिरमेन्द्रनन्दिमुनियः श्रीयोगसारीकृता । १. इति योगशास्त्रे ऽस्या पंचमप्रकाशम्य श्रीमदमरकीर्ति भट्टारकारणां शिष्य श्रीभट्टारक इन्द्रनन्दि विरचिताया योगशास्त्र टीकायां द्वितीयधकारः ।" कारंजा भण्डार प्रति, अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ पृ० १०७
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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