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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ के गुरु रामचन्द्रदेव नाम के मुनि थे, जो माधवचन्द्र के शिष्य थे। रामचन्द्रदेव जगदेक मल्ल के दरबार के कटकोपा ध्याय थे यह जन्न के गुरु नागवर्म के भी गुरु थे। जन्न कवि सक्तिमूधार्णव ग्रन्थ के कर्ता मल्लिकार्जुन का साला और शब्दमणिदर्पण के कर्ता केशिराज का मामा था। यह चोलकूल नरसिहदेव राजा के यहाँ सभी कवि, सेनानायक और मन्त्री भी रहा है। यह बड़ा भारी धर्मात्मा था। इसने किलेकाल दुर्ग में अनन्तनाथ का मन्दिर और द्वार समुद्र के विजयी पार्श्वनाथ के मदिर का महाद्वार बनवाया था। इसकी यशोधरा चरित्र, अनन्तनाथ पुराण और शिवाय स्मरतन्त्र नाम की तीन रचनाएं मिलती हैं। इसका समय सन् १२०६ ई० कर्नाटक कवि रचित में दिया हुआ है। श्री कोति यह मूनि- कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा के नन्दि सघ के विद्वान थे। जो चित्रकट से नेमिनाथ तीर्थकर की यात्राके लिये गिरनार जाते हए गुजरात की राजधानी अणहिलपूर म प्राये। वहा उन्हें राजा ने मण्डलाचार्य का विरुद (पद) प्रदान किया और उनका सत्कार किया। इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी है। (देवो वेरावल का शिलालेख जैन लेख स० भा० ४ पृ० २२०) शाके लिये गिरनार जाका सत्कार किया। का शिलालेख जन सय महाबल कवि महाबल कवि-भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण था। इसके पिता का नाम रायिदेव और माता का नाम राजयक्का था। गुरुका नाम माधवचन्द्र था जो विद्य की उपाधि से उपलक्षिा थे। क्योंकि नेमिनाथ पुराण के अश्वास के अन्त में--'माधवचन्द्र विद्य चक्रवर्ती श्रीपादपदमप्रसादसादित सकलकलाकलाप" इत्यादि वाक्य लिख कर अपना नाम लिखा है। सहजकविमलगेह (१) माणिक्यदीप, और विश्वविद्याविरंचि, कवि इन तीन नामों से प्रसिद्ध था। इसकी एकमात्र कृति नेमिनाथ पुराण उपलब्ध है। जिम में २२ पाश्वास है । उसमें प्रधानता में हरिवंश और कुरुवश का वर्णन है। यह कनड़ी भाषा का चम्पू ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में नेमिनाथ तीर्थकर, सिद्ध, सरस्वती आदि की स्तुति करके भूतबलि में लेकर पुप्पमेन पर्यन्त आचार्यों का स्तवन किया गया है । इसके पश्चात् अपने प्राश्रयदाता के नायक और अपना परिचय देकर कवि ने ग्रन्थ प्रारम्भ किया है। केतनायक परमवीर और स्वय कवि था। उसी के अनुरोध से इस ग्रन्थ की रचना हुई है। आय की रचना सुन्दर और प्रौढ है । कवि ने इसे शक सवत् ११७६ (ई० सन् १२५४) में समाप्त किया है। लघु समन्तभद्र लघु समन्तभद्र-इनकी गुरु परम्परा और गण-गच्छादि का कोई परिचय नही मिलता। इन्होंने प्राचार्य विद्यानन्दकी अष्टसहस्री पर 'विषम पदतात्पर्यवृत्ति' नामक टिप्पण लिखा है, जो अष्टसहस्री के विपम पदों का अर्थ व्यक्त करता है। इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी बतलाया जाता है। इनके टिप्पण की प्राचीन प्रति पाटन के ज्ञान भण्डार में उपलब्ध है। देवं स्वामिनममलं विद्यानदं प्रणम्य निजभक्त्या । विवृणोम्यष्टसहस्री विषमपदं लघुसमन्तभद्रोऽहम् ।। अन्तिम शिष्ट कृत दुई ष्टि सहस्री दृष्टी कृत परदृष्टि सहस्री। स्पष्टी कुरुतादिष्टसहस्री मरमाविष्टपमष्टसहस्री ? सं० १५७१ व-पूर्ण ग्रन्थ महतारसा. के नोट से कुलचन्द्र उपाध्याय-सं० १२२७ वैशाख वदि ७ शुक्रवार के दिन वर्द्धमानपुर के शांतिनाथ चैत्य में सा० भलन सा० गोगल ठा. ब्रह्मदेव ठा० कणदेवादि ने कटम्ब सहित अम्बिकादेवी की मूर्ति बनवाई और उसकी प्रतिष्ठा कुलचन्द्र उपाध्याय ने की। इससे कुलचन्द्र का समय विक्रम की १३वी शताब्दी है।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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