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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४१० उन्होंने उसकी पत्नी के लिए 'रत्नत्रय - विधान' की रचना की थी। उसकी प्रशस्ति के चतुर्थ पद्य में उन्होंने अपने को 'गृहस्थाचार्य कु'जर' बतलाया है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है: सल्लक्षणपुरे तिष्ठन् गृहस्थाचार्यकुंजरः । पण्डिताशाधरो भक्त्या विज्ञप्तः सम्यगेकदा ॥४॥ मालवनरेश अर्जुनवर्म देव का भाद्रपद सुदी १५ बुधवार सं० १२७२ का लिखा हुआ दानपत्र मिला है । उसके अन्त में लिखा है - 'रचितमिदं महासन्धि० राजा सलखण संमतेन राजगुरुणा मदनेन ।" इससे स्पष्ट है कि यह दान पत्र महासन्धि विग्रहिक मंत्री राजा सलखण की सम्मति मे राजगुरु मदन ने रचा । सम्भव है आशाधर के पिता सलखण अर्जुनवर्मा के महासन्धि विग्रहिक मंत्री बन गये हों । पण्डित प्रशार गृहस्थ विद्वान थे और वे अन्तिम जीवन तक सम्भवतः गृहस्थ श्रावक ही रहे है । हां जिन सहस्त्र नाम की रचना करते समय वे संसार के देह-भोगों से उदासीन हो गए थे, और उनका मोहावेश शिथिल हो गया था, जैसा कि उसके निम्न वाक्यों से प्रगट है : प्रभो भवांगभोगेषु निर्विण्णो दुखभीरुकः । एषविज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् । १ श्रद्य मोहग्रहावेशशैथिल्यात्किञ्चि दुन्मुखः सहस्त्र नाम की रचना स० १२८५ के बाद नहीं हुई वह स० १२९६ से पूर्व हो चुकी थी, क्योंकि जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्ति में उसका उल्लेख है । अतः वे १२९६ से कुछ पूर्व वे उदासीन श्रावक गये थे 1 रचनाए आपकी २० रचनाओं का उल्लेख मिलता है । उनमें से सम्भवतः सात रचनाएं प्राप्त नही हुई । जिनकी खोज करने की आवश्यकता है। शेष १३ रचनाओं में से ५ रचनाओं में रचना काल पाया जाता है। आठ रचनाओं में रचनाकाल नही दिया । १ प्रमेय रत्नाकर - इसे ग्रन्थकार ने स्याद्वाद विद्याका निर्मल प्रसाद बतलाया है यह गद्य-पद्यमय ग्रन्थ होगा, जो अप्राप्य है । २ भरतेश्वराभ्युदय - (सिद्धयक) इसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिम वृत्त में 'सिद्धि' शब्द आया है, स्वोपज्ञ टीका सहित है और उसमें ऋषभदेव के पुत्र भरत के अभ्युदय का वर्णन है । यह काव्य ग्रन्थ भी अप्राप्य है । १३ ज्ञानदीपिका - यह सागार अनगार धर्मामृत की स्वोपज्ञ पंजिका है, जो अब अप्राप्य हो गई है । भट्टारक यशःकीति के केशरिया जी के सरस्वती भवन की सूची में 'धर्मामृतपजिका' आशाधर की उपलब्ध है, जो सं० १५४१ की लिखा हुई है । सम्भव है यह वही हो, अन्वेषण करना चाहिए। ४ राजीमती विप्रलंभ - यह एक खण्ड काव्य है, स्वोपज्ञ टीका सहित है। इसमें राजीमती और नेमिनाथ के वियोग का कथन है, यह भी अप्राप्य है । I ५ अध्यात्म रहस्य - यह ७२ श्लोकात्मकग्रन्थ है, जिसे कविने अपने पिताकी आज्ञा से बनाया था। इसकी प्रति अजमेर के शास्त्रभंडार से मुख्तार सा० को प्राप्त हुई थी, जिसे उन्होंने हिन्दी टीकाके साथ वीरसेवामन्दिर से प्रकाशित किया है । यह अध्यात्म विषयका ग्रन्थ है । इसमें म्रात्मा परमात्मा और दोनों के सम्बन्ध की यथार्थ वस्तुस्थिति का रहस्य या मर्म उद्घाटित किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद किये हैं पं० प्राशाधर जी ने स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और परब्रह्म ये तीन भेद किये हैं और उनके स्वरूप तथा प्राप्ति आदि का कथन किया है । ग्रन्थ मनन करने योग्य है । ६ मूलाराधना टीका – यह शिवार्य के प्राकृत भगवती म्राराधना की टीका है। जो अपराजित सूरि की टीका के साथ प्रकाशित हो चुकी है । ७ इष्टोपदेश टीका - यह आचार्य देवनन्दी (पूज्यपाद) के प्रसिद्ध ग्रन्थ की टीका है, जो सागरचन्द्र के शिष्य
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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