SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ डालकर नष्ट-भ्रष्ट कर प्रात्ममात कर लिया था । अतः कविवर लक्ष्मण त्रिभूवनगिरि से भाग कर यत्र-तत्र भ्रमण करते हा विलरामपुर में आये । यह नगर प्राज भी इसी नाम से जिला एटा में वसा हुया है। उस समय वहां बिलरामपुर में सेठ विल्हण के पोत्र और जिनधर के पुत्र श्रीधर निवास करते थे। इन्होंने कविवर को मकान आदि की सविधा प्रदान की। यह कविवर के परम मित्र बन गए । साह विल्हण का वर पूरवाड़ था और श्रीधर उस वंश रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य थे। इस तरह कवि उनके प्रेम और सहयोग में वहां मुखपूर्वक रहने लगे। कवि को इस समय दो रचनाएं उपलब्ध है, जिनदत्त चरित, और अणुव्रत रत्न प्रदीप । जिनदत्त चरित जिनदत्त चरित्र में ११ सन्धियां है जिनके श्लोकों की संख्या चार हजार के लगभग है। प्रस्तुत ग्रन्थ में जीवदेव और जीवंयगा श्रेष्ठी के सपत्र जिनदत्त का चरित्र अंकित है। कवि की यह रचना एक सुन्दर काव्य है। इम में प्रादर्श प्रेम को व्यक्त किया गया है। कवि काव्य शास्त्र में निष्णात विद्वान् था। ग्रन्थ का यमकालकार यूक्त प्रादि मंगल पद्य कवि के पाण्डित्य का सूचक है। सप्पय सर कलहंस हो, हिय कलहंस हो, कलहंस हो सेयंसवहा । भणमि भवण कलहंस हो, णविवि जिण हो जिणयत्त कहा ॥ अर्थात-मोक्षरूपी मगेवर के मनोज्ञ हम, कलह के अंदा को हरने वाले, करि शावक (हाथी के बच्चे) केसम न उन्नत काध और भवन में मनोज्ञ म, ग्रादित्य के ममान जिनदेव की वन्दना कर जिनदत्त की कथा कहता हूं। ग्रन्थकर्ता ने इग ग्रन्थ में विविध छन्दों का उपयोग किया है। ग्रन्थ की पहली चार सन्धियों में कवि ने मात्रिक और वर्णवृत्त दोनों प्रकार के निम्न छन्दों का प्रयोग किया है --विलामिणी, मदनावतार, चिनंगया, मोत्ति यदाम, पिगल, विचित्तमणोहग. प्रारणाल, वस्तु, खड़य, जंभेट्रिया, भजगप्पयाउ, मामगजी, मग्गिणी, पमाणिया, पोमणी, चच्चर, न चामर, च, विभागणिया, ग्मणीलता, ममा गया, चित्तया, भमरपय, मोणय, और ललिता शादि । इन छन्दों के अवलंकन में यह स्पष्ट पता चलता है कि अपभ्रग कवि छन्द विपज होते थे। कवि ने टममें काव्योचित अनुप्राम अलंकार और प्राकृतिक सौन्दर्य का गमावेश किया है। किन्तु भौगोलिक वर्णन की विपना ग्रार शब्द योजना सुन्दर तथा श्रृति-मुखद है । इन सबमे रचना थ निमुखद और हृदय हारिणी बन गई है। रन्थ मे अनेक अलंकृत काव्यमय कथन दिये है. जिममे काव्य मरम पार कवि के शब्द योजना चातुर्य में भापा भी मरम और सरल हो गई है। कवि ने ग्रन्थ में अपने में पूर्ववर्ती अनेक जैन-जनेतर कवियों का आदरपूर्वक उल्लेख किया है-अकलंक, १. विजयपाल के उत्त गधिवागे त्रिभुवनपाल (तिहनपाल ) ने बयाना मे १८ मीन और वगैली से उत्तर पूर्व २४ मील की दूरी पर नहनगढ़ का किला बनवाया। इमे त्रिनुवगिरि के नाम से उल्लेग्विन किया जाता था। त्रिभुवनपाल के पिना विजयपाल वा उल्लेख श्रीपथ (बयाना) के मन् १.४४ के उत्कीर्ण लेख में पाया जाता है। इस वंश के अजयपाल नामक राजा की एक प्रशरित महावन से मिली है। जिसके अनुसार मन् ११५० ई० में उमका राज्य वर्तमान था। इसके उत्तराधिकारी हरिपाल का भी सन् ११७० का उत्कीर्ण लेय महावन से मिला है। भरतपुर राज्य के अघपुर नामक स्थान गे एक मूर्ति मिली है जिसके मन् ११३२ के उत्कीर्ण लेख में सहनपाल नरेश का उल्लेख है। इनके उनगधिकारी कुमारपाल थे। जिनका उल्लेख मुमलमानी तवारीख 'ताजुल मनासिर' में मिलता है। जिसमें कहा गया है कि हिजरी सन् ५७२ सन् ११६६ ई० में मुदजुद्दीन मुहम्मद गोरी ने तहनगढ़ पर आक्रमण कर वहाँ के राजा कवर पाल को पगरन किया और वह दुर्ग बहाउद्दीन तुघरिल या तुमरीन को मीप दिया । कुमारपाल वहाँ सं० १२४६ मन् ११९२ के अामपास गद्दी पर बैठा था। वह वहां ३-४ वर्ष ही राज्य कर पाया था जब गोरी ने तहनगढ़ पर अधिकार किया, तब वहाँ के सब हिन्दु परिवार नगर छोडकर यत्र-तत्र भाग गये। उनके साथ जैनी लोग भी भाग गये । लाख या लक्ष्मण कवि का परिवार भी वहां से भागकर बिलराम (एटा) पहुंचा था।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy