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________________ ३६० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ गिरि कोति प्रस्तुत गिरिकीर्ति मूल संघ बलात्कार गण सरस्वतिगच्छ कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान चन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। यह चन्द्रकीति मेघचन्द्र के सधर्मा थे। गिरिकीर्ति ने प्रशस्ति में निम्न विद्वानों का उल्लेख किया है श्रुतकीर्ति मेघचन्द्र चन्द्र कीर्ति और गिरकीति' । यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे। गोम्मटसार की रचना प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने चामुण्डराय के प्रश्नानुसार की है। यह चामुण्डराय गंगनरेश मारसिंह द्वितीय के अमात्य और सेनापति थे। इन्होंने अपना चामुण्डराय पुराण शक० सं० ६०० (सन् १७८ ई०) में बनाया। अतः गोम्मटसार की रचना का भी वही समय है । गिरिकीति की एकमात्र कृति गोम्मटसार की पंजिका है। इस पजिका का उल्लेख अभयचन्द्र ने अपनी मन्द प्रबोधिका टीका में किया है । जो उन्होंने गोम्मटसार की रचना के लगभग एक सौ सोलह वर्ष वाद शक सं० १०१६ सन् १०६४ (वि० सं० ११५१) में बनाकर समाप्त की थी। जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट है : सोलह सहिय सहस्से गयसक काले पवड्ढमाणस्स । भावसमस्ससमत्ता कत्तिय गंदीसरे एसा । प्रस्तुत पंजिका की प्रति १८ पत्रात्मक है जो सं० १५६० की प्रतिलिपि की हुई है। पजिका की भाषा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित है। जिसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड की गाथानो के विशिट गब्दों या विपमपदों का अर्थ दिया गया है। कही कही व्याख्या भी सक्षिप्त रूप में दी गई है। सभी गाथानों पर पजिका नही है। पंजिका की विशेषता पंजिका का अध्ययन करने में उसकी विशिष्टता का अनुभव होना है। कही कही मैद्धान्तिक वातों का स्पप्टीकरण किया गया है, उसकी भी जानकारी होती है। जीवकाण्ड की पंजिका में बस्तुतत्त्व का विचार करते हए उसे पृष्ट करने के लिए अन्य ग्रन्थकारों के उल्लेख भी उद्धत किये हैं जिसमे ग्रन्थ को प्रामाणिकता रहे। उसका प्रादि मंगल पद्य निम्न प्रकार हैं : पणमिय जिणिदं चंदं गोम्मट संग्गह समग्ग सुत्ताणं । केसिपि भणिस्सामो विवरण मण्णेस समासिज्ज ।। तत्थ ताव तेसि सुत्ताणमादिए मंगलझैं भणिस्स माणटुं विसय पइण्णा करणळं च कयस्स सिद्ध मिच्चाइ गाहा सुत्तस्सत्थो उच्चयेण? विवरणं कहिस्सामो तंजहा वोच्छं चारो गुणस्थानों में भाव किस अपेक्षा से निरूपित हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में भाव दर्शन मोह की अपेक्षा से कहे गये हैं, क्योंकि अविरत गुणस्थान तक चारित्र नहीं होता। १. सो जयउ वामुपुज्जो सिवामु पुज्जासुपुज्ज-पय-पउमो। पविमल वमुपूज्यसुदो मुदकिनि पिये पियं वादि ॥१ ममुदिय वि मेघचन्दप्पमाद सुदकित्तियरो जो सो कित्ति भणिज्जद परिपूज्जिय चंदकित्ति त्ति ॥२ जेगगासेस वसंतिया मग्मई ठाणंत रागो हरणीं। जं गाढं परिरुभिऊरण मुहया सोजत मुद्दासई जम्सा पुव्व गुणप्पभूदरयणालंकार सोहग्गिरि ....."कित्तिदेव जदिरणा तेरणासि ग्रंथो करो ॥ ३-पंजिका प्रशस्ति २. अथवा सर्छन गर्भोपपादानाश्रित्य जन्म भवतीति गोम्मट पंजिकाकारादीनामभिप्रायः । गो० जी० मन्द प्रबोधिका टीका गा०६३
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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