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________________ प्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३६७ दूर करने अथवा मारने या वियुक्त करने का प्रयत्न करते हैं। पर पुण्यात्मा जीव सदा सुखी और सम्पन्न रहते हैं । अतएव वह कुमार भी उनपर सदा विजयी रहा। बारह वर्ष के बाद कुमार अनेक विद्याओं और कलामों से संयुक्त होकर वैभवसहित अपने माता-पिता से मिलता है । उस समय पुत्र मिलन का दृश्य बड़ा ही करुण और दृष्टव्य है । वह वैवाहिक बन्धन में बद्ध हो कर सांसारिक सुख भी भोगता है, और भगवान नेमिनाथ द्वारा यह जानकर कि १२ वर्ष में द्वारावती का विनाश होगा, वह भोगों से विरक्त हो दिगम्बर साधु हो जाता है और तपश्चरण कर पूर्ण स्वातन्त्र्य प्राप्त करता है। इसी से कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि पुष्पिका में धर्म-अर्थ- काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय से भूषित बतलाया है ' । ग्रन्थ की भाषा में स्वाभाविक माधुर्य और पद लालित्य है । रस अलंकार और अनेक छंद भी उसकी सरसता में सहायक हैं । ग्रन्थ महत्वपूर्ण श्रौर प्रकाशित होने के योग्य है । पज्जुण्ण चरिउ की फरुख नगर की ६३ पत्रात्मक प्रति में १०वीं संधि तक सिद्ध कविकृत प्रथम संधि जैसी पुष्पिका दी हुई है। और ११वीं सघि से १५वीं संधि तक दूसरी पुष्पिका हैं । जिनसे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि कविसिंह ने ११वीं संधि से १५त्रीं संधि तक ५ सधियों को स्वयं रचा है। उससे पूर्व की सधियों के सम्बन्ध में यह कहना कठिन है कि कितनी संधि श्रीर समुद्धारित की हैं। क्योंकि ११वी सधि की पुष्पि का निम्न प्रकार है: "इय पज्जुण्ण कहाए पर्याडिय धम्मस्थकाम मोक्खाए बुहरल्हण सुश्र कइ सोहविरइयाए सच्च महादेवी माणभंगो णाम एकादशमो सधि परिच्छेयो समत्तो ॥ " पद्मनन्दि व्रती प्रस्तुत पद्मनन्दि राद्धान्त शुभचन्द्र के शिष्य थे । इन्होंने अपने को उक्त शुभचन्द्र का अग्र शिष्य लिखा है । यह महातपस्वी और अध्यात्म शास्त्र के बड़े भारी विद्वान थे। और जैनामृतरूपी सागर के बढ़ाने वाले थे । इनके विद्यागुरु कनकनन्दी पंडित थे । इनके नाम के साथ पंडितदेव, व्रती और मुनि की उपाधियां पाई जाती हैं । इन्होंने प्राचार्य अमृतचन्द्र की वचन चन्द्रिका से आध्यात्मिक विकास प्राप्त किया था । इन्होंने निम्बराज के सम्बोधनार्थ पद्मनन्दि की एकत्वसप्तति की कनड़ी टीका बनाई थी। टीका की प्रशस्ति में पद्मनन्दी और निम्बराज की प्रशंसा की गई है । ये निम्बराज वे जान पड़ते हैं जो पार्श्वकवि कृत 'निम्ब सावन्त चरिते' नाम के ५०६ षट्पदी पद्यात्मक कन्नड काव्य के नायक हैं । इस काव्य के वृत्तान्त से ज्ञात होता है कि निम्बराज शिलाहारवंशीय गण्डरादित्य राजा के सामन्त थे । इन्होंने कोल्हापुर में 'रूपनारायण' वसदि का निर्माण कराया था । और कार्तिक वदि पंचमी शक सं १०५८ ( वि० सं० १९८३ ) में कोल्हापुर व मिरज के ग्रासपास के ग्रामों की आय का दान भी दिया था । इससे इन पद्मनन्दी व्रती का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है । एकत्व सप्तति की कनडी टीका की अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है: श्रीपद्मनन्दी तिनिमितेयम् एकत्वसप्तत्य खिलार्थपूतिः । वृत्तिश्चिरं निम्बनृप प्रबोधलब्धात्मवृत्ति जयतां जगत्याम् ॥ स्वस्ति श्री शुभचन्द्र राद्धान्तदेवाप्रशिष्येण कनकनन्दि पण्डितवाप्रश्मि विकसित हृत्कुमुदानन्द श्रीमद्अमृतचन्द्रचन्द्रिकोन्मीलित नेत्रोत्पला वलोकिताशेषाध्यात्मत स्ववेदिना पद्मनन्दिमुनिना श्रीमज्जैन सुधाब्धि वर्धनकरापूर्णेन्दुरारातिवीर श्रीपति निम्बराजावबोधनाय कृतकत्वसप्ततेव तिरियम् - तज्ज्ञाः संप्रवदन्ति संततमिह श्रीपद्मनन्दि व्रती, कामध्वंसक इत्यलं तवनृतं तेषां वचस्सर्वथा ।" ( - पद्मनन्दि पंच विंशतिका की अंग्रेजी प्रस्तावना पृ० १७ ) १. इय पज्जुण्ण कहाए पर्याडिय - धम्मत्थ-काम-मोक्खाए कई सिद्ध-बिरइयाए पढमो संधी परि समत्तो ॥ १॥ २. इय पज्जुण्ण कहाए पयडियधम्मस्थ काम मोक्खाए बुह रल्हण सुअ कद्द सीह विरइयाए पज्जुष्ण-संकु भाणु- प्रणिरुद्द निव्वाणममरणं शाम पष्णारहमो परिच्छेउ समत्तो ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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