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________________ १६४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ गुरुपरम्परा कविवर सिह के गुरु मुनि पुङ्गव भट्टारक अमृतचन्द्र थे, जा तप-तेज के दिवाकर, और व्रत नियम तथा शील के रत्नाकर (समुद्र) थे। तकं रूपी लहरों से जिन्हाने परमत को झंकोलित कर दिया था-डगमगा दिया थाजो उत्तम व्याकरण रूप पदो के प्रसारक थे, जिनके ब्रह्मचर्य क तेज के आगे कामदेव दूर से ही बकित (खडित) होने की प्राशंका से मानो छिप गया था-वह उनके समीप नहीं आसकता था-इससे उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य निष्ठ होने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। कवि ने अन्तिम प्रशस्ति में अमृतचन्द्र को परवादियों को वाद में हराने में समर्थ और श्रुत केवली के समान धर्म का व्याख्याता बतलाया है। प्रस्तुत भट्टारक अमृतचन्द्र उन आचार्य अमृत चन्द्र से भिन्न है, जो आचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि प्राभूतत्रय के टीकाकार और पुरुषार्थ सिद्धयुपाय आदि ग्रन्थों के रचयिता है । वे लोक में 'ठक्कुर' उपनाम से भी प्रसिद्ध है। उनकी समस्त रचनाओं का जैन समाज में बड़ा समादर है। वे विक्रम की दशवी शताब्दी के विद्वान हैं। उनका समय पट्टावली में सं०६६२ दिया हया है जो ठीक जान पड़ता है। किन्तु उक्त भट्टारक अमृतचन्द्र के गुरु माधवचन्द्र थे, जो प्रत्यक्ष धर्म उपशम, दम, क्षमा के धारक और इन्द्रिय तथा कषायों के विजेता थे, और जो उस समय 'मलधारी देव' के नाम से प्रसिद्ध थे, और यम तथा नियम से सम्बद्ध थे। 'मलधारी' एक उपाधि थी, जो उस समय के किसी-किसी साधु सम्प्रदाय में प्रचलित थी। इस उपाधि के धारक अनेक विद्वान प्राचार्य हो गये है। वस्तुतः यह उपाधि उन नि पुगवां को प्राप्त होती थी, जो दुर्धर परीषहों, विविध घोर उपसर्गो और शीत-उप्ण तथा वर्षा को वाधा सहते हुए भी कभी कष्ट का अनुभव नही करते थे । और पसीने से तर वतर शरीर होने पर लि के कणों के संसर्ग से मलिन शरीर को साफ न करने तथा पानी से धोने या नहाने जैसी घोर बाधा को भी सह लेते थे। ऐसे मुनि पुगव ही उक्त उपाधि से अलंकृत किये जाते थे। प्रमतचन्द्र भ्रमण करते हुए बम्हणवाड नगर में आये थे। इन्हीं अमतचन्द्र गुरु के आदेश से पज्जण्ण चरिउ की रचना कवि ने को है। रचना काल कवि ने ग्रन्थ में रचना काल नही दिया, जिससे उसके निश्चय करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित हो रही है। ग्रन्थ प्रशस्ति में 'बम्हणवाड' नगर का वर्णन करते हए मात्र इतना ही उल्लेख किया गया है कि उस समय वहां रणधोरी या रणधीर का पुत्र बल्लाल था, जो अर्णोराज का क्षय करने के लिये कालस्वरूप था । और जिसका मांडलिक भत्य अथवा सामन्त गुहिल वशीय क्षत्रा भुल्लण उस समय बम्हणवाड का शासक था इससे उक्त राजाओं के राज्य काल का परिज्ञान नही होता । प्राचार्य सोमप्रभ, प्राचार्य हेमचन्द्र और सोमतिलक सूरि के कुमारपाल चरित सम्बन्धी ग्रन्थों में १. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह भा० २ पृ० २० २. देखो, 'अमृतचन्द्र का समय' शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष कि० ४-५ । ३. अमिय मयंद गुरूरणं आएसं लहेवि झत्ति इय कव्वं । प्रद्युम्न चरित की अंतिम प्रशस्ति ४. सस्मिर-गणंदण-वग्ग-संझण्णउ, मठ-विहार-जिरण-भवरणर वाउ । बम्हणबाड गामें पट्टणु, अग्णिरणाह-सेणदल वट्टणु । जो भुंजइ अग्रिणग्वय काल हो, रणधोग्यि हो सुअहो बल्लाल हो। जामु भिच्चूदुज्जण-मगगमल्ला , खत्तिउ गुहिल उत्तु जहि भुल्लणु ॥ -प्रद्युम्न परित की प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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