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________________ ३५२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ फल इन पाँच प्राधिकारों में प्रतिष्ठा-सम्बन्धी कथन दिया हुआ है । पाकर शुद्धि गुणारोपण, मन्त्रन्यास, तिलकदान, मुख वस्त्र और नेत्रोन्मीलन आदि मुख्य-मुख्य विषयों पर विवेचना को है। इसको यह विशेषता है कि शासनदेवी-देवता की उपासना का कोई उल्लेख नहीं है । द्रव्य पूजा, क्षेत्र पूजा, काल पूजा और भाव पूजा का वर्णन है। इस वमनन्दि श्रावकाचार (उपाम का ध्ययन ) में ५४८ गाथाएं हैं, जिनमें श्रावकाचार का सुन्दर वर्णन किया गया है । ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ में अन्य श्रावकाचारों से वैशिष्ट लाने का प्रयत्न किया है। रचना पर कुन्दकुन्दाचार्य स्वामिकातिकेय के ग्रन्थों का और अमितगति के श्रावकाचार का प्रभाव रहा है। श्रावकाचार के कथन में कही-कहीं विशेष वर्णन भी दिया है उदाहरण स्वरूप । कट तुला और हीनाधिक मानोन्मान आदि को अतिचार न मान कर अनाचार माना है। और भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत के भोगविरनि, परिभोगविरति ये दो भेद बतलाये है । जिनका कही दिगम्बर-श्वेताम्बर श्रावकाचारों में उल्लेख नही मिलता और सल्लेखना को कुन्दकुन्दचार्य के समान चतुर्थ शिक्षाबत माना है । प्राप्तमीमांसा वृत्ति प्राचार्य ममन्त भद्र के देवागम या प्राप्तमीमांसा में ११४ कारिकाए है। जिन पर वसुनन्दो ने अपनी वत्ति लिखी है। कारिकामों की यह वत्ति अत्यन्त संक्षिप्त है जो केवल उनका अर्थ उद्घाटित करता है। वृत्ति मे कारिकायों का सामान्यार्थ दिया है। उनका विशद विवेचन नही दिया। कही-कही फलितार्थनी मक्षिप्त में प्रस्तुत किया है। जो कारिकाप्रो के अर्थ समझने में उपयोगी है । वत्तिकार ने अपने को जडमति पार विम्मरणशोल बतलाते हुए अपनी लघता व्यक्त की है। उन्होंने यह वनि अपने उपकार के लिये बनाई है। इससे वनि बनाने का प्रयोजन स्पष्ट हो जाता है वत्तिकार ने ११५ व पद्य की टीका भी की है। किन्तु उन्होंने उसका कोई कारण नहीं बतलाया, सन्भवत: उन्होंने उसे मूल का पद्य समझकर उसको व्याख्या की है। पर वह मलकार का पद्य नहीं है। जिनशतकटीका यह प्राचार्य समन्तभद्र कृत ११६ पद्यात्मक चतुविशति तीर्थकर स्तवन ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का मलनाम 'स्तुति विद्या' है, जैसा कि उसके प्रथम मगल पद्य में प्रयुक्त हुए 'स्तुति विद्या प्रसाधये' प्रतिज्ञा वाक्य से ज्ञात होता है। ग्रथकार ने उसे स्वय 'पागसां जय'-पापों कोजीतने का हेतु बतलाया है। यह गव्दालकार प्रधान ग्रथ है । इसमें चित्रालकार के अनेक रूपों को दिया गया है। उनमें प्राचार्य महोदय के अगाध काव्य काशल का महज ही पता चल जाता है । इस ग्रन्थ के अन्तिम ११६ व 'गत्वैक स्तुतमेव' पद्य के सातवे वलय मे 'शान्तिवर्मकत' प्रारचा वलय म जिन स्ततिशत पदा का उपलब्धि होती है, जो कवि और काव्य नाम को लिये हा है। ग्रन्थ में कई तरह के चक्रवृत्त है । इसी में टीकाकार वमुनन्दी ने टीकाकी उत्थानि का में इस ग्रथ को 'समस्त गुणगणोपेता' 'सर्वालकार भूषिता' विगंपणो के साथ उल्लेखित किया है । ग्रंथ कितना महत्वपूर्ण है यह टीकाकार के-'धन-कठिन-घाति कर्मन्धन दहन समर्था' वाक्य मे जाना जाता है। जिसमें घने एवं कठोर घातिया कर्म रूपी ईधन को भस्म करने वाली अग्नि बतलाया है । यह ग्रंथ इतना गूढ है कि बिना संस्कृत टीका के लगाना प्रायः असंभव है। अतएव टीका कार ने 'योगिना मपि दष्कराविशेषण द्वारा योगियों के लिये भी दूर्गम बतलाया है। इसमें वर्तमान चोवीस तीर्थकरों का अलकृत भापा में कलात्मक स्तुति की गई है। इसका शब्द विन्याश अलंकार की विशेषता को लिये हुए है । कहीं श्लोक के एक चरण को उल्टा रख देने से दूसरा चरण बन जाता है, और पूर्वार्ध को उलटकर रख देने से उत्तरार्ध और समूचे श्लाक को उलट कर रख देने से दूसरा श्लोक बन जाता है। ऐसा होने पर भी अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। इस ग्रन्थ के अनेक पद्य ऐसे है जो एक से अधिक अलंकारों को लिये हुए हैं। मूल पद्य अत्यन्त क्लिष्ट और गंभीर अर्थ के द्योतक है। टीकाकार ने उन सब पदों की अच्छी व्याख्या की है और प्रत्येक पद्य के रहस्य को सरल भाषा में उद्घाटित किया है। मूल ग्रन्थ में प्रवेश पाने के लिये विद्यार्थियों के लिये बड़े काम की चीज है । इस टीका के सहारे ग्रन्थ में सनिहित विशेष अर्थ को जानने में सहायता मिलती है। ग्रंथ हिन्दी टीका के साथ सेवा मन्दिर से प्रकाशित ३. देखो, २१७, २१८, न० की गाथाएं, वमनन्दि था. प्र. ६६, १००। ४. देखो, उक्त श्राव का चार गाथा नं० २७१, २७२, पृ० १०६ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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