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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य माधव चन्द्रवती प्रस्तुत माधवचन्द्रवती मूनि देवकीति के शिप्य थे। जो अद्वितीय ताकिक, कवि वक्ता और मण्डलाचार्य थे। इनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है । इनका स्वर्गवास शक मं० १०८५ (वि० स०१२२०) सुभान संवत्सर आषाढ़ शुक्ला हवीं बुधवार को सूर्योदय के समय हुआ था तव उनके शिप्य लक्खनन्दी, माधवचन्द्र और त्रिभवन मल्लने इनकी निषद्या को प्रतिष्ठित किया था। अतः इनका ममय सन् ११६३ (वि० सं० १२२०) सनिश्चित यह ईसाकी १२वीं शताब्दी के विद्वान थे। माधवचन्द्र यह मूल संघ देशीयगण पुस्तक गच्छ हनसोगे बलि के प्राचार्य थे और शुभचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य थे। होयसल नरेश विष्ण वर्द्धन ने अपने पुत्र के जन्मोपलक्ष्य में इन्हें दोरघरट्ट जिनालय (उस समय जिसका नाम पार्श्वनाथ जिनालय कर दिया गया था) के लिए ग्रामादि दान दिये थे। यह लेख नय कीति सिद्धान्न चक्रवती के शिप्य मिचन्द्र पंडित देव को उसी जिनालय के लिए दिया था, जो वर्ष प्रमादिन के दान शासन में है। (एपिनाफिया क०५ वेलर पृ० १२४) मि० लू इराइसने इस लेख का समय सन् ११३३ ई० अनुमानित किया है। अतः यह माधवचन्द्र ईसा की १०वीं शताब्दी के पूर्वाध के विद्वान हैं। इन्हीं माधवमेन को शक स० १०५७ (सन् ११३५ ई०) के लगभग विष्णुवर्धन के प्रसिद्ध दण्डनायक गंगराज के पुत्र बोपदेव दण्ड नायक ने अपने ताऊ बम्मदेव के पुत्र तथा अनेक वस्तियों के निर्माता एचिराज की मत्य पर उनकी निपद्या बनवाकर उन्ही द्वारा निर्मापित वस्तियों के लिए स्वयं एचिगज की पत्नी की प्रेरणा इन माधवचन्द्र को धारापूर्वक दान दिया था। (देखो, जैनलेख सं० भा० १ पृ० २६८) कि इस लेख का समय लगभग सन् १०५७ है । अतः प्रस्तुत माधवचन्द्र ईमा की ११वीं शताब्दी विद्वान हैं। वसुनन्दी सैद्धान्तिक वमनन्दी नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। उनमें एक वसुनन्दी योगी का उल्लेख ग्याहरवीं सदी के विद्वान अमितगति द्वितीय ने भगवती आराधना के अन्त में आराधना की स्तुति करते हुए 'वसुनन्दि योगिमहिता' पद द्वारा किया है। जिसमे वे कोई प्रसिद्ध विद्वान हुए हैं। प्रस्तुत वसुनन्दी उनसे भिन्न और पश्चाद्वर्ती विद्वान हैं। किन्त श्री कुन्दकुन्दाचार्य की वंशपरम्परा में श्रीनन्दी नामके बहुत ही यशस्वी गुणी एवं सिद्धान्त शास्त्र के पारगामी पाचार्य हरा हैं । उनके शिप्य नयनन्दी भी वैसे ही प्रख्यातकीर्ति, गुणशाली सिद्धान्त शास्त्र के पारगामी और भव्य सयानन्दी थे। इन्हीं नयनन्दी के शिष्य नेमिचन्द्र थे। जो जिनागम समुद्र की वेला तरंगों से ध्यमान पीर सकल जगत में विख्यात थे । उन्हीं नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनन्दी थे। जिन्होंने अपने गुरु के प्रसाद से, प्राचार्य परम्परा से चले माये हुए थावकाचार को निबद्ध किया है। वसनन्दी के नाम से प्रकाश में आने वाली रचनाओं में उपास का ध्ययन,-प्राप्तमो मांसा वत्ति, जिनशतक टीका, मुलाचार वृत्ति और प्रतिष्ठा सार संग्रह ये पांच रचनाएं प्रसिद्ध हैं। इनमें उपासकाध्ययन (वसुनन्दी श्रावका चार) और प्रतिष्ठासार संग्रह के कर्ता तो एक व्यक्ति नहीं हैं । प्रतिष्ठा पाठ के कर्ता वसुनन्दी पाशाधर के बाद के विद्वान है। क्योंकि प्रतिष्ठापाठ के समान उपासकाध्ययन में जिनबिम्ब प्रतिष्ठा का खूब विस्तार के साथ वर्णन करते हए अनेक स्थलों पर प्रतिष्ठा शास्त्र के अनुसार विधि-विधान करने की प्रेरणा की गई है। इसमें प्रतिष्ठा सम्बन्धी प्रकरण है, उसमें लगभग ६० गाथाओं में कारापक, इन्द्र, प्रतिमा, प्रतिष्ठाविधि. और पनि १. देखो, वसुनन्दि श्रावकाचार की अन्तिम प्रशस्ति २. उपास का ध्ययन गाथा ३९६-४१०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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