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________________ ग्यारहवी और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३४६ देवकीति का स्वर्गवास शक स० १०८५ सन् ११६३ सुभानुसवत्सर प्रापाढ शुक्ला नवमी बुधवार को सूर्योदय के समय हुआ था' । उनका समय सन् १०४० से ११६३ ई० है। अर्थात यह ईसा की १२वी शताब्दी के विद्वान है । यादव वशी नरेश नर्गसह प्रथम के मंत्री हल्लप ने निपद्या बनवाई, और देवकीति के शिष्य लक्खनन्दि और माधवचन्द्र ने प्रतिष्ठित की। सिद्धान्तदेव यह मूलमघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण पूस्तक गच्छ के कोल्हापूरीय माघनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे । बड़े विद्वान थे । शक म० १०५२ (सन् ११३० ई०) में माघनन्दि के शिष्य गण्ड विमुक्त सिद्धान्तदेव को होयमल नरेश विष्णुवर्द्धन की पुत्री एव बल्लाल देव की बडी बहिन राजकुमारी हरियव्वरसि ने एक रत्न जटित जिनालय बनवाकर स्वगुरु को प्रदान किया था '' । और सन् ११३८ मे इन्ही गण्ड विमुक्तदेव बनीग को दान दिये जाने का उल्लेख है। । इनके पट्टधर शिष्य देवकीति थे, और अन्य शिप्य शुभनन्दी थे । देवकीति का समाधिमरण मन् ११६३ ई० में हुआ था । 3 । इनका समय मन् ११३५ मे ११४५ ई० तक है। माणिक्यनन्दी यह मूलमघ कुन्दकुन्दान्वय देशी गण पुस्तक गच्छ के विद्वान माघनन्दि सैद्धान्तिक के गिप्य थे। क्षल्लकपर (कोल्हापूर)के शिलाहार नरेश विजयादित्य ने मन् ११४३ मे माघनन्दि वे गहम्थ शिष्य द्वाग निर्मापित जिनालय के लिये उनके गिाय माणिक्यनन्दी को दान दिया था 1 ।यह भी वट विद्वान और तपस्वी थे। इनका समय ईमा की१२वी शताब्दी का मध्यभाग है। माधवचन्द्र मलधारी यह भट्टारक अमृत चन्द्र के गम थे । और जो प्रत्यक्ष में धर्म, उपशम, दम, क्षमा के धारक, तथा इन्द्रिय और कपायो के विजेता थे। उनकी प्रसिद्धि 'मलधारी' नाम से थी। मलधारी एक उपाधि थी जो उम समय किसी किसी गाध मम्प्रदाय में प्रचलित थी। यह उपाधि दुर्धर परीपहो, विविध उपमर्गो, पोर शीत उप्ण तथा वप की बाधा महते हुए भी काट का अनुभव नही करते थे। पसीने सेतर बतर शरीर होने पर धुलि के कणो के ससर्ग से मल्लिन शरीर को पानी गे धोने या नहाने जैसी घोर बाधा को भी हसते हसते मह लेते थे। ऐसे ऋपि पगव ही उक्त उपाधि गे अलकृत किये जाते थे। इनका समय विक्रम की १२वी शताब्दी का उत्तरार्ध जान पड़ता है। क्योकि इनके शिष्य अमृतचन्द्र कवि सिह के गरु थे। कवि सिह ने सिद्ध कवि के अपूर्ण खण्ड काव्य पज्जुण चरिउ को प्रगस्ति मे बम्हणवाड नगर का वर्णन किया है । उस समय वहा रणधारी या रणधीर का पुत्र बल्लाल था जोअर्णोराज का क्षय करने के लिए काल स्वरूप था क्योकि वह उसका वेरी था। जिसका मालिक भृत्य या मामन्त गुहिल वशीय क्षत्रीय भुल्लण बम्हणवाड का शासक था। १० जन लग्य सभा० १ ले० नं० ३६ (६३) पृ० ११ जैन लेग स० भाग २ ले० ने० २६३ पृ० ४४५ १२ जैन लेख स० भा० ३ ले० न० ३०७ पृ० २१ १३ जैन लेख स० भा० १ ले० न० ३६ पृ० २१ १४ जैन लेख स०भा० ३ ले० न० ३२० पृ० ५३ १ ता मलधारि देव मुणि पु गमु, रण पच्चक्व धामु उवममु दमु । माहवचद आसि सुपसिद्धउ, जो खम, दम गम-णियम समिद्धउ । -पज्जुण्ण चरिउ प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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