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________________ ३४८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कोल्हापुर की रूपनारायण वसति (मन्दिर) के प्रधानाचार्य थे। ३३४ नं० के शिलालेख में इन माघनन्दि सिद्धांत देव को कुन्दकुन्दान्वय का सूर्य बतलाया है । इनके अनेक शिष्य थे। अपने समय के बड़े ही प्रभावशाली विद्वान थे । रूपनारायण वसदि क अतिरिक्त अन्य अनेक जिनालयों के भी प्रबंधक थे । रूपनारायण वदि का निर्माण सामन्त निम्बदेव ने कराया था। निम्वदेव जैन धर्म का पक्का अनुयायी था। उसने रूपनारायण वसदि का निर्माण कराकर अपना धर्म प्रेम प्रकट किया था। माघनन्दि सैद्धान्तिक इनके चारित्र गुरु थे । सन् ११३५ ई० में भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर भी बनवाया था। इनके सामन्त केदारनाकरस, सामन्त कामदेव' और चमूपति भरत भी शिष्य थे इनकी शिष्य परम्परा में अनेक विद्वान् हुए हैं। माघनन्दि सैद्धान्तिक के पट्ट शिप्य गण्डविमक्त देव सिद्धान्त देव थे। अन्य शिष्य कनकनन्दि, चन्द्रकीति, प्रभाचन्द्र महनन्दि और माणिक्यनदि थे। ये सभी शिष्य अच्छे विद्वान् थे। माण्डलिक गोक-जैन धर्म का पक्का श्रद्धानी और अनुयायी था। तेरदाल के जैन मंदिर में प्राप्त शिला लेख से गोककी जैन धर्म की दढ़ प्रतीति का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। लेख में बतलाया है कि पंचपरमेष्ठी के स्मरण मात्र से गोंक का विषदूर होगया था। गोक ने तेरदाल में नेमिनाथ का मदिर बनवाया था और उसके प्रबन्ध के लिये तथा जैन साधुओ को आहारदान देने के लिये भूमिदान दिया था यह दान रट्ट नरेश कार्तिवीर्य (द्वितीय) के शासन काल में अपनी रानी वाचलदेवी, जो इन्ही माघनन्दि की शिष्या थी, द्वारा निर्मापित गोंक जिनालय के नेमिनाथ के लिये शक स०१०४५ (सन् ११२३ ई०) को माघनन्दि सैद्धान्तिक को दिया था। ___ गण्ड विमुक्त देव के एक छात्र सेनापति भरत और दूसरे शिष्य भानुकीति और देवकीति थे । गण्डविमुक्त देव के सधर्मा श्रुतकीति विद्य मुनि थे, जिन्होंने विद्वानो को भी चकित करने वाले अनुलोम-प्रतिलोमकाव्य राघव-पाण्डवीय काव्य की रचनाकर निर्मलकीति प्राप्त की थी ओर देवेन्द्र जैसे विपक्ष वादियो को परास्त किया था। इनका समय शक स०१०४५ (सन् ११२३ ई.) से १०६५ (सन् ११४३ ई०) है यह वारहवी शताब्दी के विद्वान हैं। देवकोति देवकीति मूलसघ कुन्दकुन्दान्वय दशीय गण और पुस्तक गच्छ के विद्वान माघनन्दि सैद्धान्तिक के प्रशिष्य और गण्ड विमुक्तदेव के शिष्य थे । अद्वितीय कवि 'तार्किक,वक्ता और मण्डलाचार्य थे। इनके सन्मुख सांख्य, चार्वाक, नैयायिक, वेदान्ती और बौद्ध आदि जेनेतर दार्शनिक विद्वान अपनी हार मानते थे। इनके अनेक शिप्य थे। किन्तु पट्टधरशिष्य देवचन्द पण्डित देव थे। इनके सधर्मा माधनन्दि विद्य, शुभचन्द्र विद्य, गण्डविमुक्त चतुर्मुख रामचन्द्र विद्य थे । देव कीर्ति के पट्टधर शिप्य देवचन्द्र पडित देव को, जो कोल्लापुरीय वसदि के थे, शक स० ११०६ सन् ११८४ ई० को भरतियय्य दण्डनाथ और बाहु बली दण्डनाथ ने दान दिया था। ३. श्री मूलमघ देशीयगण पुग्नक गच्छ अधिपतेः क्षुल्नकपुर श्री रूपनारायण जिनालयाचार्यस्य श्रीमान् माघनन्दि सिद्धान्त देवस्य .........॥" -एपि नाफिका इंडिका भा० ३ पृ० २०८ ४. श्री मूलमघ देशीगण-पुम्तयागच्छ क्षुल्लकपुर श्री रूपनागयण-चैत्यालयस्याचार्यः । श्री माघनन्दि सिद्धात देवो विश्व मही स्तुतः । कुलचन्द्र मुनेः शिष्यः कुन्दकुन्दान्वयाशुमान् ।। -जन लेख सं० भा०३ ले० न० ३३४ १०६५ ५. देखो, जैन लेख म० भा० १ ले० न ४० पृ० २७ ६. देखो, जन लेख म० भा० २ लेख नं० २८० ७. जैन लेख स० भा० ३ लेख न० ४१४ ८. जैन लेख म० भा० ११० २६ ६. जैन लेख स० भा० ३ ले० न० ४११
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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