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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ मालवपति मुज नरेश द्वारा पूजित थे और जो गुणाकरसेनसूरि के शिष्य थे । दूसरे महासेन 'सुलोचना चरित' के कर्ता हैं जिनका उल्लेख 'हरिवंश पुराण' में पाया जाता है । प्रस्तुत महासेन इनसे भिन्न जान पड़ते हैं। यह कोई तीसरे ही महासेन हैं। वृत्तिकार ने जहाँ वीरनन्दि को नित्य नमस्कार करने की बात लिखी है, और बतलाया है कि जिस मुमुक्ष मुनि के सदा व्यवहार और निश्चय प्रतिक्रमण विद्यमान हैं। और जिसके रंच मात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं हैं ऐसे संयम रूपी माभूषण के धारक मुनि को मैं (पद्मप्रभ) सदा नमस्कार करता हूं। वृत्तिकार ने अपने समय में विद्यमान 'माधवसेनाचार्य' को नमस्कार करते हुए उन्हें संयम और ज्ञान की मूर्ति, कामदेवरूप हस्ति के कुंभस्थल के भेदक और शिष्य रूप कमलों का विकास करने वाले सूर्य बतलाया है । पद्य में प्रयुक्त 'विराजते' क्रिया उनकी वर्तमान मौजूदगी की द्योतक है वह पद्य इस प्रकार है । "नोमस्तु ते संयमबोधमूर्तये, स्मरेभकुंभस्थल भेदनायवे, विनेयपंकेरुह विकासभानवे विराजते माधवसेनसरये ॥" माधवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। परन्तु ये माधवसेन उनमे भिन्न जान पड़ते हैं। एक माधवसेन काष्ठासंघ के विद्वान नेमिषेण के शिष्य थे, और अमितगति द्वितीय के गुरु थे। इनका समय सं० १०२५ से १०५० के लगभग होना चाहिये। दूसरे माधवसेन प्रतापसेन के पट्टधर थे। इनका समय विक्रम की १३ वी १४ वीं शताब्दी होना संभव है। तीसरे माधवसेन मूलसंघ, सेनगण पोगरिगच्छ के चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव के शिष्य थे । इन्होंने जिन चरणों का मनन करके और पंच परमेष्ठी का स्मरण कर के समाधि मरण द्वारा शरीर का परित्याग किया था । इनका समय ई० सन् ११२४ (वि०सं० ११८१) है। चौथे माधवसेन को लोक्किय वसदि के लिये देकररस ने जम्बहलि प्रदान की। इस का दाम माधवसेन को दिया था। यह शिलालेख शक संवत ७८५-सन् १०६२ ई० का है। अतः इन माधवसेन का समय ईसा की ११वीं शताब्दी का तृतीय चरण है। इन चारों माधवसेनों में से तकार द्वारा उल्लिखित माधवसेन का समीकरण नहीं होता। अतः वे इनसे भिन्न ही कोई माधवसेन नाम के विद्वान होंगे। उनके गण-गच्छादि और समय का उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। - पद्मप्रभ मलधारिदेव ने वृत्ति के पृ० ६१ पर चन्द्रकीतिमुनि के मन की वन्दना की है । और पृष्ठ १४२ में उन्हों ने श्रुत विन्दु' नाम के ग्रन्थ का 'तथा चोक्तं श्रुत बिन्दौ, वाक्य के साथ निम्न पद्य उद्धृत किया है : जयति विजयदोषोऽमर्त्यमत्येन्द्रमौलिप्रविलसदरुमा लायचितांघ्रि जिनेन्द्रः । त्रिजगदजगती यस्ये दृशौ व्यश्नुवाते सममिव विषयेष्वन्योन्य वृत्ति निषेद म् ॥ १. तच्छिष्यो विदिता खिलोरु समयो वादी च वाग्मी कविः । शब्दब्रह्मविचित्रधामयशसां मान्यां सताममणीः । आसीत् श्रीमहासेन सूरिरनघः श्री मुंजराजाचितः । सीमा दर्शन बोध वृत्तपसां भव्याब्जिनी बान्धवः ॥ -प्रद्युम्न चरित प्रशस्ति ३ २. महासेनस्य मधुरा शीलालंकार धारिणी। कथा न वरिणता केन वनितेव सुलोचना ।।-हरिवंश पुराण १-३३ ३. यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुक्षो-स्त्यि प्रतिक्रमण मप्यणुमात्र मुच्चः । तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय, श्री वीरनन्दि मुनि नामधराय नित्यम् ॥-नियमसार वृत्ति ४. निरुपम मिदं वन्धं श्रीचन्द्रकीति मुने मनः॥ -नियमसार वृत्ति पृ० १५२
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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