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________________ ३२८ जन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ १२. ब्रह्मचर्य रक्षावति-यह २२ पद्यों का लघ प्रकरण है, इसमें काम सुभट को जीतने वाले मुनियों को नमस्कार कर ब्रह्मचर्य का स्वरूप निदिष्ट किया है। अपने स्वरूप में रमण करने का नाम ब्रह्मचर्य है। जितेन्द्रिय तपस्वियों की दृष्टि निर्मल होती है, राग उनके स्वरूप को विकृत करने में समर्थ नही होता, ऐसे योगी वन्दनीय होते हैं। राग को जीतने के लिए रहन-सहन सादा और सादा भोजन होना चाहिए। १३. ऋषभ स्तोत्र-इस ६० गाथात्मक प्रकरण में प्रथम जिनकी स्तुति की गई है, जिनमें उनके जीवन की झांकी का भी दिग्दर्शन निहित है। उन्होंने सांसारिक वैभव का परित्याग कर किस तरह स्वात्मलब्धि प्राप्त की, उसका सुन्दर वर्णन किया गया है । तीर्थकर प्रकृति के महत्व का भी दिग्दर्शन कराया गया है। १४. जिन दर्शन स्तवन-यह प्रकरण भी प्राकृत की ३४ गाथाओं को लिये हुए है । इसमें जिनदर्शन की महिमा का वर्णन है। १५. श्रुत देवता स्तुति इसमें ३१ श्लोकों द्वारा जिनवाणी का स्तवन किया गया है। १६. स्वयंभू स्तुति इसमें २४ श्लोकों द्वारा चौवीस तीर्थकरों की स्तुति की गयी है। १७. सुप्रभाताष्टक - यह अप्ट पद्यात्मक स्तुति है- जिस तरह प्रातः काल होने पर रात्रि का अन्धकार मिट जाता है और सूर्य का प्रकाश फैल जाता है । उस समय जन समुदाय की नीद भग होकर नेत्र खुल जाते हैं। उसी प्रकार मोह कर्म का क्षय हो जाने पर मोह निद्रा नष्ट हो जाता है, ओर ज्ञान दर्शन का विमल प्रकाश फैल जाता है। १८. शान्तिनाथ स्तोत्र-इसमें ६ श्लोकों द्वारा तीन छत्र और पाठ प्रातिहार्यो सहित भगवान शान्तिनाथ का स्तवन किया गया है। १६. जिन पूजाष्टक-१० पद्यात्मक इस प्रकरण में जल चन्दनादि द्रव्यों द्वारा जिन पूजा का वर्णन है। २०. करुणाष्टक-इस में अपनी दीनता दिखला कर जिनेन्द्र में दया की याचना करते हए ससार से अपने उद्धार की प्रार्थना की गई है। २१. क्रियाकाण्ड चूलिका-इसमें जिन भगवान से प्रार्थना की गयी है कि रत्नत्रय-मूल व उत्तर गुणों के सम्बन्ध में अभिमान और प्रमाद के वश मुझसे जो अपराध हुआ है, मन, वचन, काय और कृत, कारित अनुमोदना से मैने जो प्राणि पीडन किया है, उससे जो कर्म मंचित हुआ हो वह आप के चरण-कमल स्मरण में मिथ्या हो। २२. एकत्व भावना दशक-इसमें ११ पद्यों द्वारा परम ज्योतिस्वरुप तथा एकत्वरूप अद्वितीय पद को प्राप्त आत्मतत्त्व का विवेचन किया गया है। उस आत्मतत्त्व को जो जानता है वह स्वयं दूसरों के द्वारा पूजा जाता है। २३. परमार्थ विशति-इसमें बतलाया है कि सुख और दु.ख जिम कर्म के फल हैं वह कर्म आत्मा से पृथक है-भिन्न है । यह विवेक बुद्धि जिसे प्राप्त हो चुकी हैं, 'उसके मैं सुखी हूं अथवा दुखी हूं' ऐसा विकल्प ही उत्पन्न नहीं होता । ऐसा योगो ऋतु आदि के कष्ट को कष्ट नही मानता। २४. शरीराष्टक-इसमें शरीर की स्वाभाविक अपवित्रता ओर अस्थिरता को दिखलाते हुए उसे नाडीव्रण के समान भयानक और कडुवी तूबड़ी के समान उपभोग के अयोग्य बतलाया है। अनेक तरह से उसका संरक्षण करने पर भी अन्त में जर्जरित होकर नष्ट हो जाता है। २५ स्नानाष्टक -मल से परिपूर्ण घड़े के समान मल-मूत्रादि से परिपूर्ण रहने वाला यह शरीर जल स्नान से पवित्र नही हो सकता । उसका यथार्थ स्नान तो विवेक है जो जीव के चिर संचित मिथ्यात्वादि आन्तरिक मल को धो देता है । जल स्नान से प्राणि हिंसा जनित केवल पाप का ही संचय होता है । स्नान करने और सुगन्धित द्रव्यों का लेप करने पर भी उसकी दुर्गन्धि नहीं जाती। २६. ब्रह्मचर्याष्टक-विषय भोग एक प्रकार का तीक्ष्ण कुठार है जो संयम रूप वृक्ष को निर्मूल कर देता है। विषय सेवन जब अपनी स्त्री के साथ भी निन्द्य माना जाता है । तब भला पर स्त्री और वेश्या के सम्बन्ध को मच्छा कैसे कहा जा सकता है।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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