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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ आचार्य अमृतचन्द्र की इस मान्यता को उत्तरवर्ती विद्वान प्राचार्यों ने (सोमदेव देवसेन, पं० श्राशाधर ने ) अपने ग्रन्थों में अपनाया है । इन सब प्रमाणों से ज्ञात होता है कि कवि धनपाल दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान थे । भविष्यदत्त कथा ३०८ प्रस्तुत कथा अपभ्रंश भाषा की रचना है । प्रस्तुत कृति में ३४४ कडवक हैं। जिनमे श्रुत पंचमी के व्रत का महात्म्य बतलाते हुए उनके अनुष्ठान करने का निर्देश किया गया है। साथ ही भविष्यदत्त और कमलश्री के चरित्र-चित्रण द्वारा उस और भी स्पष्ट किया गया है । ग्रन्थ का कथा भाग तीन भागों में बाटा जा सकता है । चरित्र घटना बाहुल्ल होते हुए भी कथानक सुन्दर वन पड़े है । उनमें साधु-ग्रसाधु जीवन वाले व्यक्तियों का परिचय स्वाभाविक बन पड़ा है । कथानक म अलोकिक घटनाओं का समीकरण हुआ है, परन्तु वस्तु वर्णन में कवि के हृदय ने साथ दिया है । अतएव नगर, दशादिक भार प्राकृतिक वर्णन सरस हो सके है । ग्रन्थ में रस और अलंकारों के पुट नं उसे सुन्दर और सरस बना दिया है । ग्रन्थ में जहा श्रृगार, वीर और शान्तरस का वर्णन है वहाँ उपमा, उत्पक्षा, स्वभावोक्ति और विरोधाभास आदि अलकारों का प्रयोग भी दिखाई देता है । भाषा में लोकोक्तिया और वाग्धाराम्रा का प्रयाग भा मिलता है । यथा - किं घिउ होइ विरोलिए पाणिए पानी के विलौने से क्या घी हो सकता है । प्रण इच्छिइहोंति जिय दुक्खइ सहसा परिणर्वात तिह सोबखइ(३-१०-८) जैसे यदृच्छया दुख प्रात है बसे है। सहसा सुख भी प्रा जाते है । जोव्वण वियारसवस पसरि सो सूरउ सो पडियउ । चल मम्मण वयणुल्लावएहि जो परतिर्याह न खडियउ । वही शूर वीर है और वहा पंडित है, जो यावन के विपय विकारा के बढ़ने कामोद्दीपक वचनों से प्रभावित नहीं होता । ( ३- १८- ६ ) पर स्त्रियों के चंचल जहां जेणदत्तं तहातेण पत्तं इमं सुच्चए सिट्ठ लोएण वृत्तं । सुपायन्नवा कोहवा जत्त माली कहं सो नरो पावए तत्थसाली । जो जैसा देता हैं, वैसा ही पाता है । यह शिष्ट लोगों ने सच कहा है। जो माली कोदों वोवेगा वह शाली कहां से प्राप्त कर सकता है इन सुभापतों और लोकोक्तियों से ग्रन्थ और भी सरस बन गया है । ग्रन्थका कथा भाग तीन भागों में वांटा जा सकता है । यथा १. व्यापारी पुत्र भविष्यदत्त की संपत्ति का वर्णन, भविष्यदत्त, अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त से दो बार धोखा खाकर अनेक कष्ट सहता है, किन्तु अन्त में उसे सफलता मिलती है । २ कुरूराज और तक्षशिला नरेशों में युद्ध होता है, भविष्य दत्त उसमें प्रमुख भाग लेता है, और उसमें विजयी होता है । ३. भविष्यदत्त तथा उसके साथियों का पूर्व जन्म वर्णन । कथा का संक्षिप्त सार भरत क्षेत्र के कुरुजांगल देश में गजपुर नाम का एक सुन्दर और समृद्ध नगर था। उस नगर का शासक भूपाल नाम का राजा था। उसी नगर में धनपाल नाम का नगर सेठ रहता था। वह अपने गुणों के कारण लोक में प्रसिद्ध था । उसका विवाह हरिबल नाम के मेठ को सुन्दर पुत्री कमलश्री से हुआ था । वह अत्यन्त रूपवती और गुणवती थी। बहुत दिनों तक उसके कोई सन्तान न हुई, प्रतएव वह चिन्तित रहती थी। एक दिन उसने अपनी चिन्ता का कारण मुनिवर से निवेदन किया । मुनिवर ने उत्तर में कहा, तेरे कुछ दिनों में विनयी, पराक्रमी और गुणवान पुत्र होगा। और कुछ समय बाद उसके भविष्यदत्त नाम का पुत्र हुआ। वह पढ़ लिखकर सब कलानों में निष्णात हो गया । धनपाल सुरूपा नाम की पुत्री से अपना दूसरा विवाह कर लेता है । उसके बन्धुदन्त नाम का पुत्र हुआ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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