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________________ ग्यारसवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, और प्राचाय ३०७ वे सर्वज्ञशासन रूपी ग्राकाश के शरत्कालीन पूर्णमासी के चन्द्रमा थे । और वे तत्कालीन गांगेय और भोज देवादि समस्त नृप पु गवो मे पूजित थे । इनमें गंगेय देव तो कलचूरि नरेश ज्ञात होते है जो कोक्कल (द्वितीय) के पश्चात् सन् १०१६ के लगभग सिहासनारूढ हुए। और सन् १०३८ तक राज्य करते रहे है और भोज देव वही धारा के परमरावंशी राजा है, जिन्होने सन् १००० से सन् १०५५ (वि०स० १११२) तक मालवा का राज्य किया है । ओर जिनका गुजरात के सोलकी राजाओं में अनेक बार सघर्ष हुआ। इससे श्रुतकीर्ति का समय सन् १०८० से १०६५ तक हो सकता है । " कवि धनपाल कवि धनपाल 'धर्कट वश' नामक वैश्य कुल मे उत्पन्न हुआ था। इसके पिता का नाम माएसर और माता का नाम धनसिर ( धनश्री ) देवी था। प्रस्तुत धर्कट या धक्कड वंश प्राचीन है। यह वंश १०वी शताब्दी से १३वी शताब्दी तक बहुत प्रसिद्ध रहा है । और इस वश मे अनेक प्रतिष्ठित श्री सम्पन्न पुरुष और अनेक कवि हुए है । भविष्य दत्त कथा का कर्ता प्रस्तुत धनपाल पावन वश में उत्पन्न हुआ था । जिसका समय १० वी शताब्दी है । धर्म परीक्षा (स० १०४४) के कर्ता हरिषेण इसी वश मे उप्पन्न हुए थे । जम्बूस्वामी चरित्र के कर्ता वीर कवि (स० १०७६) के समय मालव देश में धक्कडवा के मघसूदन के पुत्र तक्वड श्रेष्ठी का उल्लेख मिलता है जिनकी प्रेरणा से जम्बू स्वामी चरित्र रचा गया है । स० १२८७ के देलवाडा के तेजपाल वाले शिला लेख में 'धर्कट' जाति का उल्लेख है । इससे इस वंश की महत्ता ग्रार प्रसिद्धि का महज ही बोध हो जाता है । धनपाल अपभ्रंश भाषा के अच्छे कवि थे और उन्हें सरस्वति का वर प्राप्त था जमा कि कवि के निम्न वाक्यों से "चितिय धणवालि वणिवरेण, सरसइ बहुलद्ध महावरेण । " - प्रकट है । कविका सम्प्रदाय दिगम्बर था । यह उनके - 'भजि विजेरण यिंदवरि लायउ ।' ( संधि ५-२० ) के वाक्य से प्रकट है। इतना ही नही किन्तु उन्होंने १६वे स्वर्ग के रूप में अच्युत स्वर्ग का नामोल्लेख किया है । यह दिगम्बर मान्यता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द की मान्यतानुसार सल्लेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत स्वीकार किया है' । कवि के अप्ट मूल गुणो का कथन १० वी शताब्दी के प्राचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थ सिद्धय पाय के निम्नपद्य से प्रभावित है मद्यं मांस क्षौद्रं पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन । हिंसा व्युपरत कामं मोक्तव्यानि प्रथममेव ॥ ( ३-६१ ) 'महु मज्ज मंसु पंचवराइ, खज्जंति ण जम्मंतर सयाइ ॥ १. विद्वान्ममाना विचारचतुरानन । शिरश्चन्द्र कराकार कीर्तिव्याप्त जगत्रयः ||१३ व्याख्यातृ - कवित्वादि गुगाहरु मानस । सर्वज्ञशासनाकाश शरत्पार्वण चन्द्रमा ॥ १४ गागेय भोजदेवादि समस्त नृपपुङ्गवै । पूजितोत्कृष्टपादारविन्दो विध्वस्तकल्मषः ॥ १५ - श्रीचन्द्र कथाकोष प्रशस्ति- जैनग्र थ - प्रशस्ति स० भा० २ पृ० ७ २. धक्कड विंसि माएसर हो समुब्भविरण | मिरि देवि एण विरइउ सम्म मभविण ॥ ( अन्तिम प्रशस्ति ) ३ अह मालवम्मि धरण -करण दरसी, नयरी नामेण सिधु - वरिसी । तहि धक्कड वग्गे वश लिउ, महसूया गदर गुग्गारिणलउ ॥ गामेण सेट्ठि तक्खड़, वसई, जस पडढ़ जासु निहुरिण रमई | (जबू० प्रशस्ति) ४. मद्य मान मत्याग महोदुम्बर पञ्चकं । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुतौ ॥ - ( उपासका० २१, २७० ) महु मज्जुनस विरई चत्ता ये पुण उबराण पचण्ह । अट्ठेदे मूलगुग्गाहर्वति फुड, देसविरयम्मि । ( - गा० ३५६ ) तत्रादौ श्रद्दधज्जैनी माज्ञा हिसानपासितुम् । मद्य मास-मधु त्युज्भेत् पचक्षीरी फलानि च । - सा० २–२
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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