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________________ ३०२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ के अनुरोध से बनाया था।' टीका सुन्दर है और पद्यों के अर्थ को प्रकट करने वाली है । भ. श्रीचन्द्र और नागचन्द्र मूरि को भी इस पर टीका बतलाई जाती है । पर वे इतनी विशद नही हैं, केवल शब्दार्थ प्रकट करने वाली है। प० प्राशाधर जी की इस टीका में स्पष्ट है कि भूपाल कवि को यह रचना उनसे पूर्व हो चुका था। चतुर्विशति का दूसरा पद्य प्राचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण के पुष्पदन्त चरित्र में दिये हुए पद्य के साथ बहत साम्य रखता है उसमे ऐसा प्रतीत होता है कि भूपाल कवि ने उसे उत्तर पुराण से लिया हो। दोनों के पद्य नीचे दिये जाते है : शान्तं वपुः श्रवरणहारिवचश्चरित्रं सर्वोपकारि तब देव ततो भवन्तम् । संसारमारवमहास्थल रुन्द्रसान्द्र च्छायामहीरुहमिमे सुविधि श्रयामः ॥६१ उत्तर पु० ५५ पृ०७० शान्तं वपुः श्रवणहारिवचश्चरित्र सर्वोपकारि तव देव ततः श्रु तज्ञाः। ससारमारवमहास्थल रुन्द्रसान्द्रच्छायामहीरुह भवन्तमुपाश्रयन्ते ।। -जिन चतुर्विशति का २ इस पद्य में द्वितीय और चतुर्थ चरण बदले हुए हैं। वाकी पद्य ज्यों का त्यों मिलता है इससे स्पष्ट है कि भपाल कवि के सामने उत्तर पुराण रहा है। सुलोचना चरित्र के कर्ता कवि देवमेन ने अपने से पूर्ववर्ती क उल्लेख करते हुए पुप्पदन्त के नामोल्लेख के साथ भूपाल का भी नाम दिया है। पुप्फयंत भूपाल-पहाणहि । इससे यह ज्ञात होता है कि भूपाल कवि : वों शताब्दी के वाद और १३ वी शताब्दी से पूर्व हुए है । सम्भव है कवि ११ वी या १२ वी शताब्दी के पूवाधं के विद्वान हो । इम सम्बन्ध में और विशेष अनुसन्धान की आवश्यकता है। दामराज कवि दामराज सार्वभौम त्रिभवनमल्ल नरेश (राज्यकाल ई० सन् १०७६ मे ११२६) का गंगपेरमानडीदेव नामक सामन्नराजा था। और उमका नोक्कय हेग्गडे नाम का मन्त्री था। पह ने यह कवि इसी मन्त्री का प्राथित था। परंत शिवमोग्ग तहसील में जो दशवां शिलालेख है, उसमें इसने अपने को 'सन्धि वैग्रहिक' मन्त्री लिखा है। इससे मालम होता है कि पीळ मे इसने उक्त पद प्राप्त कर लिया होगा। गगपेरमानडी देव ने बहत मे जिन मन्दिरों को ग्रामादि दान किये थे, और उनके शासन कवि दामराज मे लिखवाये थे। उक्त शासन लेखों के पद्यों से यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि वह उच्च श्रेणी का कवि था। यह ज्ञात नहीं हुमा कि इसने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की है या नहीं। इसका समय सन् १०.५ के लगभग जान पड़ता है। कन्ति कन्ति–यह स्त्री कवि थी। इसकी कविता बहुत ही मनोहारिणी होनी थी। देवचन्द कवि के एक लेख से मालूम होता है कि यह छन्द, अलकार, काव्य, कोश व्याकरणादि नाना ग्रन्थों में कुशल थी बाहूबल नामक कवि ने अपने नागकमार चरित के एक पद्य में इसकी बहुत प्रशमा की है और इसे 'अभिनव वाग्देवो' विशेपण दिया है। द्वार समद्र के बल्लाल राजा विप्ण वर्धन की सभा में अभिनवपप और कन्ति से विवाद हुमा था। अभिनवपप को दी हुई समस्या की थी। अभिनवाप चाहता था कि कन्नि मेरी प्रशसा करे-उसको की हुई प्रशसा को वह अपने गोरव का कारण समझता था। परन्तु वह पप की प्रगसा नही करती थी। कहा जाता है कि अन्त में कन्ति ने पप को कविता की प्रशंसा करके उसे सन्तुष्ट कर दिया था। १ 'उपशमइव मूर्ति पूनकीनि म तम्मान जयति विनयचन्द्रः सच्चकोरेक चन्द्रः । जगदमृतमगर्भा: शास्त्र मन्दर्भ गर्भाः शुचि चरित महिप्णीर्यस्य धिन्वन्ति वाचः ।" -जिन चतुर्विशति का टीका प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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