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________________ पारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३०१ दामनन्दी पनसोगे निवासी मुनियों में मनि के शिष्य दामनन्दि थे । यह लेख शक सं० १०२१ सन १०६६ का है, इनके शिष्य श्रीधराचार्य थे। इनका समय ईमा को ११वी सदी है। --जैन लेख स० भा०२ १०३५६ भूपाल कवि कवि ने अपने नामोल्लेख के सिवाय अपना कोई परिचय प्रस्तुत कवि भूपाल नही किया। और न उन्होंने यही सूचित किया कि यह जिन चतुर्विशतिका' स्तोत्र कहाँ और कब बनाया है ? प्रस्तुत स्तोत्र में २६ पद्य है। जिनमें जिन दर्शन की महत्ता ख्यापित करते हुए जिन प्रतिमादर्शन को लौकिक और पारलौकिक अभ्युदयों का कारण बतलाया है : श्री लीला यतनं महीकुलगृहं कीति प्रमोदास्पदं, वाग्देवी रति केतनं जयरमा क्रीडानिधानं महत । स स्यात्सर्व महोत्सवैक भवनं यः प्राथितार्थ प्रदं, प्रातः पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनांघ्रिद्वयम् ।।१।। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकाल के समय जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करता है, वह बहुत ही सम्पत्तिशाली होता है । पृथ्वी उसके वश में रहती है, उसकी कीर्ति सब ओर फैल जाती है, वह सदा प्रसन्न रहता है। उसे अनेक विद्याएँ प्राप्त हो जाती हैं, युद्ध में उसको विजय होती है, अधिक क्या उसे सब उत्सव प्राप्त होते हैं। स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननी गर्भान्ध कपोदरा-- दद्योद्घाटित दृष्टि रश्मि फलवज्जन्मास्मि चाद्य स्फुटम् । त्बमद्राक्षमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयी नेन्नेन्दीवरकाननेन्दु ममतस्यन्दि प्रभाचन्द्रिकम् ॥३ हे भगवन् ! आज आपके दर्शन करने से मैं कृतार्थ हो गया और मैं ऐसा समझता हूं कि आज ही मेरे प्राध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ हो रहा है। मेरे ज्ञान नेत्र खुल गए है और में यह अनुभव कर रहा हूं कि विषय कषाय और अज्ञान के कारण अब तक मेरी शक्ति कुठित हो रही थी। मिथ्यात्व ने मेरी ज्ञान दृष्टि को अवरुद्ध कर दिया था। पर आज मेरा जन्म सफल हुआ है। जो व्यक्ति मंगलमय वस्तु का दर्शन करना चाहता है उसके लिये जिनदर्शन से बढ़कर अन्य कोई मांगलिक वस्तु नही हो सकती। प्रातःकाल मंगलमय वस्तु का अवलोकन करने से मन प्रसन्न रहता है, और उसमें कार्य करने को क्षमता बढ़ती है । क्योंकि देव दर्शन समस्त पापों का नाश करने वाला, स्वर्ग सूख को देने वाला और मोक्ष सुख की प्राप्ति में सहायक है। ध्यानस्थ वीतरागी की प्रतिमा के अवलोकन मात्रसे काम क्रोधादि विकार और हिंसादि पाप नष्ट हो जाते हैं, और प्रात्मोत्थान की प्रेरणा मिलती है। जिस प्रकार सछिद्र हाथ में रक्खा गया जल शनैः शनैः हाथ मे गिर जाता है, उसी प्रकार वीतराग प्रभु के दर्शन मात्र से राग-द्वेष-मोह की परिणति क्षीण होने लगती है। प्राचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बाह्य साधनों में जिन प्रतिमादर्शन की गणना की है । भूपाल कवि ने वीतराग के मुख को त्रलोक्य मगलानकेतन बतलाया है। इस स्तवन पर सबसे पुरानी टीका पं० आशाधर की है जिसे उन्होंने सागरचन्द के शिष्य विनय चन्द्र मुनि १ दर्शन देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम् । दर्शन स्वर्गसोपान दर्शन मोक्ष साधनम् ।। दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूनां वन्दनेन च । न चिरं तिष्ठते पाप छिद्रहस्ते यथोदकम् ।। दर्शन पाठ २ सर्वार्थ सिद्धि १-७, पृ० १२ शोलापुर एडीसन ३ अन्येन कि तदिह नाथ तवैव वक्त्रं त्रैलोक्य मङ्गलनिकेतनमीक्षणीयम् ॥१६ -जिन चतुर्विशतिका
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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