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________________ यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २६१ सातवें परिच्छेद में ७६ श्लोकों में व्रतोंके अतिचारों के वर्णन के साथ थावक की ११ प्रतिमाओंकादर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्य त्याग, रात्रिभोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, प्रारम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग रूप एकादश स्थानों का-कथन किया गया है। पाठवें परिच्छेद में सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कोयोत्सर्ग रूप छह प्रावश्यकों का स्वरूप और उनके भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन किया गया है। हवें परिच्छेद में दान, पूजा, शील, उपवास, इन चारोंका स्वरूप बतलाते हुए इन्हें संसारवन को भस्म करने के लिये प्रग्नि के समान बतलाया है। दशवें परिच्छेद में पात्र कुपात्र और अपात्र का कथन किया है। और कुपात्र-अपात्र को त्याग कर दान देने की प्रेरणा की है। ग्यारहवें परिच्छेद में अभयदान, उसका फल और महत्ता का वर्णन निर्दिष्ट है। वारहवें परिच्छेद में जिन पूजा का वर्णन किया है और पूर्वाचार्यो के अनुसार वचन और शरीर की क्रिया को रोकने का नाम द्रव्य पूजा और मन को रोककर जिन भक्ति में लगाने का नाम भाव पूजा कहा है । यथा वचो विग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा पूरातनः ।।१२ किन्तु अमितगति ने अपने मत से गन्ध पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और अक्षत से पूजा करने का नाम द्रव्य पूजा और जिनेन्द्र गुणों का चिन्तन करने का नाम भाव पूजा बतलाया है। गन्धप्रसून सान्नाह दोपधूपाक्षतादिभिः । क्रियमाणाथवा ज्ञेया द्रव्यपूजा विधानतः ॥१३ व्यापकानां विशुद्धानां जिनानामनुरागतः । गुणानां यदनुध्यानं भावपूजेयमुच्यते ।।१४।। १३वें परिच्छेद में रत्नत्रय के धारक संयमीन की विनय का वर्णन है । और उनकी वैयावृत्य करने का विधान किया है। चौदहवें परिच्छेद में वारह भावनाओं का वर्णन है। पन्द्रहवें परिच्छेद में ११४ श्लोकों द्वारा ध्यान का और उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन किया है। इस तरह यह ग्रन्थ श्रावक धर्म का अच्छा वर्णन करता है। पाराधना-यह शिवार्य की प्राकृत आराधना का पद्यबद्ध संस्कृत अनुवाद है जिसे कर्ताने चार महीने में पूरा किया था। प्रशस्ति में कवि ने देवसेन से लेकर अपने तक की गुरु परम्परा दी है, परन्तु समय और स्थान का कोई उल्लेख नहीं किया। ग्रन्थ कर्ता ने भगवती पाराधना में पाराधना की स्तुति करते हुए एक वसुनन्दि योगी का उल्लेख किया है, जो उनसे पूर्ववर्ती ज्ञात होते हैं: यः निःशेष परिग्रहेभदलने दुर्वारसिंहायते । या कज्ञानतमो घटाविघटने चन्द्रांशु रोचीयते। या चिन्तामणिरेव चिन्तितफलैः संयोजयंती जनान । सावः श्री वसुनन्दियोगि महिता पायात्सदाराधना। इससे वे एक योगी और महान् विद्वान ज्ञात होते हैं। तत्त्वभावना-यह १२० पद्योंका छोटा सा प्रकरण है, इसे सामायिक पाठ भी कहा जाता है। यह प्रकरण ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी के अनुवाद के साथ सूरत से प्रकाशित हो चुका है । इसके अन्त में कवि ने लिखा है १ दानं पूजा जिन शीलमुपवासश्चतुर्विषः । श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्य पावकः ॥१॥
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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