SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ मसूतिकापुर में वि० सं० १०७३ में समाप्त की है। उपाकासचार-प्राचार्य अमितगति द्वारा विरचित होने से इसका नाम अमितगति श्रावकाचार कहा जाने लगा है । कर्ताने स्वयं-'उपासकाचार विचारसारं संक्षेपतः शास्त्रमहं करिष्ये।' वाक्य द्वारा इसे उपासकाचार शास्त्र बतलाया है। उपलब्ध श्रावकाचारों में यह विशद, सुगम और विस्तृत है। इसकी श्लोक संख्या १३५२ है। इस श्रावकाचार की यह विशेषता है कि कवि ने प्रत्येक सर्ग या अध्याय के अन्तिम पद्य में अपना नाम दिया है। ग्रन्थ १५ परिच्छेदों में विभाजित है। प्रथम परिच्छेद में संसार का स्वरूप बतलाते हुए धर्म की महत्ता को प्रकट किया है और बतलाया है कि इस लोक में जीवका साथी धर्म ही है, अन्य गह, पूत्री, स्त्री, मित्र, धन, स्वामो और सेवक, ये जीव के साथ नहीं जाते, कर्मोदय से इनका संयोग मिलता है। धर्म ही एक ऐसा पदार्थ है जो जोव के साथ परलोक में भी जाता है, अतः वही हितकारी है। गृहांगजा पुत्रकलत्रमित्र स्वस्वामि भत्यादि पदार्थ वर्गे। विहाय धर्म न शरीर भाजा मिहास्ति किचित्सहगामि पथ्यम् ॥६० धर्म से ही मानव जीवन की शोभा है, धर्म के प्रताप से इन्द्र, धरणेन्द्र चक्रवादिकी प्राप्त होती है। तीर्थकर पद भी धर्म से ही मिलता है। धर्म से ही आपदाओं का विनाश होता है । अतः धर्माचरण करना श्रेयस्कर है। दूसरे परिच्छेद में मिथ्यात्व को हेय बतलाते हुए सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की प्रेरणा की है और उसकी महत्ता का विवेचन किया है। तीसरे परिच्छेद में सम्यग्दर्शन के विषय भूत जीवादिक पदार्थों का वर्णन किया है। चौथे परिच्छेद में ७४ पद्यों द्वारा चार्वाक, विज्ञानाद्वैतवादी, ब्रह्मद्वैतवादी, सांख्य, नैयायिक, असर्वज्ञतावादी, मीमांसक और बौद्ध आदि अन्यमतों के अभिप्राय को दिखलाकर उनका निराकरण किया है। पांचवें परिच्छेद में ७४ पद्यों द्वारा मद्य, मांस, मध, रात्रिभोजन और पंच उदंबर फलों के खाने के त्याग का वर्णन है। यथा मद्य मांस-मधुरात्रिभोजनं क्षीरवृक्षफलवर्जनं विधा। कुर्वते वत जिघृक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निषेविते व्रतम् । द्य में रात्रि भोजन के साथ पांच उम्बर और तीन मकार का त्याग अवश्यक बतलाया है, क्योंकि उनके त्याग से व्रत पुष्ट होते हैं । किन्तु इन्हें मूलगुण नहीं बतलाया। छठे परिच्छेद में १०० श्लोकों द्वारा श्रावक के बारह व्रतोंका-पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षा व्रतों का सून्दर वर्णन किया है । अहिंसा अणुव्रत का कथन करते हुए हिंसा के दो भेद किये हैं, एक आरम्भी हिंसा और उसरी अनारम्भी हिंसा । और लिखा है कि जो गह त्यागी मुनि हैं वे तो दोनों प्रकार की हिंसा नहीं करते। किन्तु जो गहस्थी है वह अनारम्भी हिंसा का तो परित्याग कर देता है, किन्तु प्रारम्भी हिंसा का त्याग नहीं कर सकता। "हिंसा द्वधा प्रोक्ताऽऽरम्भानारम्भमेदतो वक्षः। गृहवासतो निवृत्तो धाऽपि त्रायते तांच ।।६ गृहवाससेवनरतो मन्दकषायः प्रतितारम्भः । प्रारम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितु नियतम् ॥७ जो इन व्रतों को सम्यक्त्व सहित धारण करता है वह अमर सम्पदा का उपोभग करता हुआ अन्त में अविनाशी सुख प्राप्त करता है। १ त्रिसप्तत्यधिके ऽब्दानां सहस्त्रे शक विद्विषः । मसूतिका पुरे जात मिदं शास्त्रं मनोहरम् ॥
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy