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________________ २२२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ "अंबाइय कंचीपुर विरत्त, जहिं भमई भव्य भत्तिहि पसत्त । जहि बल्लहराएँ वल्लहेण, काराविउ कित्तणु दुल्लहेण । जिण पडिमालंकिउ गच्छ माण , णं केण वियंभिउ सुरविमाण । जहिं रामणंवि गुणमणि णिहाण जयकित्ति महाकित्ति वि पहाणु। इय तिण्णि वि परमय-मई-मयंद-मिच्छत्त-विडविमोडण गई।' उक्त पद्यों में उल्लिखित रामनन्दी कौन है, और उनकी गुरु परम्परा क्या है और जयकीर्ति महाकोति से से इनका क्या सम्बन्ध है ? यह अज्ञात है। ये तीनों विद्वान भी नयनन्दी के समकालीन हैं। रामनन्दी प्राचार्य थे। इनके शिष्य बालचन्द ने कवि से सकलविधि-विधान बनाने का संकेत किया था। ऐतिहासिक दृष्टि से इन विद्वानों के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक है। प्राकृत श्रुतस्कन्ध के कर्ता ब्रह्म हेमचन्द्र के गुरु भी रामनन्दी हैं। और माणिक्य नन्दी के गुरु भी रामनन्दी हैं। ये दोनों भिन्न-भिन्न विद्वान हैं या अभिन्न हैं, यह विचारणीय है। प्रभाचन्द्र माणिक्यनन्दी के अन्य विद्या शिष्यों में प्रभाचन्द्र प्रमख रहे हैं। वे उनके 'परीक्षामख' नामक सूत्र-ग्रन्थ के कुशल टीकाकार भी हैं। दर्शन शास्त्र के अतिरिक्त वे सिद्धान्त के भी विद्वान थे। प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने उक्तधारा नगरी में रहते हुए केवल दर्शन शास्त्र का अध्ययन ही नहीं किया ; प्रत्युत धाराधिपभोज के द्वारा प्रतिष्ठा पाकर अपनी विद्वत्ता का विकास भी किया। साथ ही विशाल दार्शनिक ग्रन्थों के निर्माण के साथ अनेक ग्रन्थों की रचना की है। 'प्रमेय कमल मार्तण्ड' (परीक्षामुख टीका) नामक विशाल दार्शनिक ग्रन्थ सुप्रसिद्ध राजा भोज के राज्यकाल में ही रचा गया है । और 'न्याय कुमुदचन्द्र' (लघीयस्रय टीका) प्राराधना-गद्य कथाकोश पुष्पदन्त के महापुराण (आदिपुराण-उत्तरपुराण) पर टिप्पण-ग्रन्थ तत्त्वार्थ वृत्ति पद टिप्पण, शब्दाम्भोज भास्कर समाधि तंत्र टीका ये सब ग्रन्थ राजा जयसिंह देव के राज्य काल में रचे गये हैं। शेष ग्रन्थ प्रवचन सरोज भास्कर, पंचास्तिकायप्रदीप, प्रात्मानुशासन तिलक, क्रियाकलाप टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका, वृहत्स्वयंभूस्तोत्र टीका, तथा प्रतिक्रमणपाठ टीका, ये सब ग्रन्थ कब और किसके राज्यकाल में रचे गए हैं ये इन्हीं प्रभाचन्द्र की कृति है या अन्य की यह विचारणीय है। इनमें प्रवचन सरोजभास्कर और पंचास्तिकाय प्रदीप तो इन्हीं प्रभाचन्द्र की कृति हैं। शेष के सम्बन्ध में सप्रमाण निर्णय करने की जरूरत है कि वे इन्हीं की कृति हैं। या किसी अन्य प्रभाचन्द्र की। ये प्रभाचंद्र वही ज्ञात होते हैं जिनका श्रवण वेल्गोल के शिलालेख नं० ४० के अनुसार मूलसंघान्तर्गत दरूप देशोयगण के गोल्लाचार्य के शिष्य एक अविद्धकर्ण कौमारवती पद्मनन्दी सैद्धांतिक का उल्लेख है जो कर्णवेवसंस्कार होने से पूर्व ही दीक्षित हो गए थे। उनके शिष्य और कुलभूषण के सधर्मा एक प्रभाचन्द्र का उल्लेख पाया जाता है जिसमें कुलभूषण को चारित्रसागर और सिद्धान्त के पारगामी बतलाया गया है। और प्रभाचन्द्र को शब्दाम्भोरुह भास्कर तथा प्रथित तर्क-ग्रन्थकार प्रकट किया है। इस शिलालेख में मनि कलभषण की शिष्य परम्परा का भी उल्लेख निहित है। प्रविद्ध कर्णादिक पद्मनन्दी सैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके। कौमारदेवव्रतिता प्रसिद्धिर्जीयात्तु सज्ज्ञाननिधिः सधीरः॥ तच्छिष्यः कुलभूषणाख्या यतिपश्चारित्रवारी निधिःसिद्धान्ताम्बुधि पारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान । शब्दाम्भोरुह भास्करः प्रथित तर्क ग्रन्थकारः प्रभाचन्द्राख्या मुनिराज पंडितवरःश्रीकुन्दकुन्दान्वयः॥ तस्य श्री कुलभूषणाल्य सुमुनेश्शिष्यो विनेयस्तुतः सवृत्तः कुलचन्द्रदेव मुनिपस्सिद्धान्तविद्यानिधिः ।। श्रवण वेल्गोल के ५५वें शिलालेख में मूलसंघ देशीयगण के देवेन्द्रसैद्धान्तिक के शिष्य, चतमख देवी शिष्य गोपनन्दी और इन्हीं गोपनन्दी के सधर्मा एक प्रभाचन्द्र का उल्लेख भी किया गया है, जो प्रभाचन्द्र धारा
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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