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________________ यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य २८१ पंडिता ने देवदत्ता गणिका को उनका परिचय कराया। गणिका ने छल से उन्हें अपने गृह में प्रवेश कराकर कपाट बन्द कर दिये, गणिका ने मुनि को प्रलाभित करने की अनेक चेष्टाएँ की । अन्त में निराश हो उसने उन्हे श्मशान में जा डाला। वहां जब वे ध्यानस्थ थे, तभी एक देवांगना का विमान उनके ऊपर आकर रुक गया । देवांगना रुष्ट हुई । और मुनि को देख कर उसे अपने अभया रानी वाले पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। उसने विक्रिया ऋद्धि से मुनि के चारों ओर घोर उपसर्ग किया, तो भी सुदर्शन मुनि ध्यान में स्थिर रहे । इसी बीच एक व्यन्तर ने आकर उस व्यन्तरी को ललकारा, उसे पराजित कर भगा दिया । कुछ समय पश्चात् सुदर्शन मुनि के चार घातिया कर्मों का नाश हो गया और उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । देवादिक इन्द्रों ने उनकी स्तुति की, कुबेर ने समोसरण की रचना की। केवली के उपदेश को सुनकर व्यन्तरी को वैराग्य हो गया, उसने तथा नर-नारियों ने सम्यक्त्व को धारण किया । अवशिष्ट प्रघाति कर्मों का नाश कर सुदर्शन ने मुक्ति पद प्राप्त किया । कवि की दूसरी कृति 'सयल विहिविहाणकव्व' है, जो एक विशाल काव्य है जिसमें ५८ संधियां प्रसिद्ध हैं, परन्तु बीच की १६ सधियां उपलब्ध नही है । ग्रन्थ के त्रुटित होने के कारण जानने का कोई साधन नही है । प्रारम्भ की दो-तीन सधियों में ग्रन्थ के अवतरण प्रादि पर प्रकाश डालते हुए १२ वी से १५ वी सधि तक मिथ्यात्व के काल मिथ्यात्व और लोक मिथ्यात्व आदि अनेक मिथ्यात्वों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए क्रिया वादि और अक्रियावादि भेदों का विवेचन किया है । परन्तु खेद है कि १५ वी सन्धि के पश्चात् ३२ वी सन्धि तक १६ सन्धियाँ आमेर भण्डार की प्रति में नही है । हो सकता है कि वे लिपि कर्ता को न मिली हों । ग्रन्थ की भाषा प्रौढ है और वह कवि के अपभ्रंश भाषा के साधिकारित्व को सूचित करती है । ग्रन्थान्त में सन्धिवाक्य पद्य में निबद्ध किये हैं । मुनिवरणयदि सष्णिद्धे पसिबद्धे, सयलविहि विहाणे एत्थ कव्वे सुभब्वे, समवसरणसंसि सेणिए संपवेसो, भणिउ जण मणुज्जो एम संधी तिइज्जो ॥३॥ ग्रन्थ की ३२वी सन्धि में मद्य मांस-मधु के दोष और उदंबरादि पंच फलों के त्याग का विधान और फल बतलाया गया है । ३३ वी संधि में पच अणुव्रतों का कथन दिया हुआ है और ३६ वी संधि में अणुव्रतों की विशेषताएँ बतलाई गई हैं। और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के श्राख्यान भी यथा स्थान दिये हुए हैं । ५६ वी संधि के अन्त में सल्लेखना ( समाधिमरण) का स्पष्ट विवेचन किया गया है और विधि में प्राचार्य समन्तभद्र की सल्लेखना विधि के कथन क्रम को अपनाया गया है। इसमे यह काव्य ग्रन्थ गृहस्थोपयोगी व्रतों का भी विधान करता है। इस दृष्टि से भी इस ग्रन्थ की उपयोगिता कम नही है । छन्द शास्त्र की दृष्टि से इस ग्रन्थ का अध्ययन और प्रकाशन आवश्यक है। क्योंकि ग्रन्थ में ३०-३५ छन्दों का उल्लेख किया गया है जिनके नामों का उल्लेख प्रशस्ति संग्रह की प्रस्तावना में किया गया है । ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति इतिहास की महत्वपूर्ण मामग्री प्रस्तुत करती है। उसमें कवि ने ग्रन्थ बनाने में प्रेरक हरिसिह मुनि का उल्लेख करते हुए अपने से पूर्ववर्ती जैन जैनेतर और कुछ सम सामयिक विद्वानों का भी उल्लेख किया है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सम-सामयिक विद्वानों में श्री चन्द्र, प्रभाचन्द्र और श्री कुमार का, जिन्हें सरस्वती कुमार भी कहते थे, नाम दिये हैं । ईश्वर कविवर नयनन्दी ने राजा भोज, हरिसिंह, श्रादि के नामोल्लेख के साथ-साथ वच्छराज, और प्रभु का उल्लेख किया है और उन्हें विक्रमादित्य का मांडलिक प्रकट किया है। यथा जहिं बच्छराउ पुण पुहइ वच्छु, हुतउ पुह ईसरु सूदवत्थु । एप्पिणु पत्थए हरियराउ, मंडलिउ विक्कमाइच्च जाउ ॥ संधि २ पत्र ८ इसी संधि में चलकर अंबाइय और कांचीपुर का उल्लेख किया है, कवि इस स्थान पर गये थे । इसके अनन्तर ही वल्लभराज का उल्लेख किया है, जिसने दुर्लभ जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया था, और जहां पर रामनन्दी, जयकीर्ति और महाकीर्ति प्रधान थे। जैसा कि ग्रन्थ की निम्न पक्तियों से प्रकट है। - १. जैन ग्रन्थ प्रशास्ति संग्रह भा० २ प्रम्यावना पृ० ५०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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