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________________ ग्यारहवी और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचाप २७७ इन्द्रसेन भट्टारकविल (ड) संघ, मनगण, मालनृर अन्वय क भट्टारक मस्लिमन क प्रधान शिष्य थे इन्हें चालुक्य कुलभूषण राजा त्रिभुवनमल्ल देव की रानी जाकल दवा म, जा जेन धमपरायणा पार जिन पूजा में निरत रहता था पार इगुणिगे ग्राम का शासन करती थी। वह जन धमपरायणा गना तिक्क का पुत्रा था। उमक पनि चालुक्य कुलभूषण त्रिभुवनमल्लदेव थे। जो कल्याणपुर क शामक थ। उन्होन गना का जैन धर्म ग पगन्मुख करने का प्रतिज्ञा ले रक्खो थी। परन्तु वह अपने उस कार्य म सफल न हो सका। एक दिन राना के साभाग्य स एक व्यापारा महुमाणिक्य दव का प्रतिमा लेकर पाया, पार रानी के मामने वह अपना विनयभाव दिखला रहा था कि उमी ममय राजा त्रिभवनमल्नदव या गया। उमन रानी ने कहा कि यह जिनमति अनुपम सुन्दर है, इम अपन प्राधान ग्राम में प्रतिष्ठित करा, तुम्हारे धर्मानुयायिया क लिये प्ररणाप्रद होगी तब राजा का प्राज्ञा स रानी ने मान का प्रतिष्ठा भी करा दा पार सुन्दर मन्दिर भी बनवा दिया। और उसकी व्यवस्था उक्त इन्द्रसेन भट्टारक का सापी। यह दान चालुक्य विक्रम क १८व गज्यवर्ष में सन् १०५४ म थामुख सवतसर के फाल्गुण सुदा १०मा सामवार के दिन समारोह पूर्वक भट्टारक जी क चरणा का पूजा करक सोपा गया था।' दान में २१ वृहत् मत्तर, प्रमाण कृप्य भूमि, १ बगीचा आर जन मन्दिर के समीप का एक घर दिया। माणिक्यनन्दी माणिक्यनन्दी नन्दि मर क प्रमग्व प्राचार्य थ। ग्रार धाग नगग के निवामा । व व्याकरण पर सिद्धान्त के ज्ञाता हाने क माय दगन शास्त्र के तलदा टा विद्वान् । उम समय धारा नगरी विद्या का कन्द्र बना हई थी। बाहर क अनक विद्वान् वहा पाकर अपना विद्या का विकाम करत थे । वहा अनक विद्यापाठ थ जिनम छात्र रहकर विद्याध्ययन करक विद्वान बनन थे । अनक मारस्वत विद्वान् प्राचाय जन धर्म का विकास और प्रचार कार्य मे सलग्न रहत थे । उम समय धारा नगरा का प्रभु भोज देव था, जा राज्य कार्य का मचालन करते हा भी विद्या व्यसनी, कवि ार शास्त्र कर्ता था। वह विद्वाना का बड़ा आदर करता था। वहा के विद्या पीठ मे सिद्धान्त, दर्शन, व्याकरण, छन्द, अलकार पार काव्यादि विविध विषया क ग्रन्थों का पठन-पाठन होता था। सुदर्शन चरित के कर्ता नयनन्दी ने वहा की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख किया है । मुनक्षत्र, पद्मनन्दी, विष्णुनन्दा, नन्दनन्दी, विश्वनन्दी, विशाखनन्दी, गणीगमनन्दी, माणिक्यनन्दी नयनन्दी, हरिसिह, श्रीकुमार, जिन्हे सरस्वती कमार भी कहा जाता था, प्रभाचन्द्र, ग्रार बालचन्द्र । दूसरी परम्परा लाड वागड गण क बलात्कारगण का थी। जिसमें सागरसन, प्रवचनमन, पार याचन्द्रादि ।वद्वाना का उल्लेख पाया जाना है। माणिक्यनन्दी गणीरामनन्दी क शिप्य थे। जो भारतीय दर्शन क साथ जेन दर्शन क प्रकाण्ड पण्डित थे। इनके अनेक विद्या शिष्य थ । उनम नयनन्दा प्रथम विद्या शिष्य 4। जिन्हान स० ११०० मे धारा नरेश भोज क १. (दग्या, गूलबर्गा जिल वा दान-पत्र) Jainism in south India P 406-407 २. जिणिदास वीररस तित्य मरत महाकुदकुदारणए एनसते । सुग्णवाहिहाणे तहा पामणदी, पुणा विण्डणी तया दिणदी। जिण्टु धम्म मुगमा विमुद्धा, कपाग। गंथा जयत पसिद्धा। भवबोहिपोआ महा विम्सणदी, समाजुत्तु सिद्ध तिआ विसहगदी। जिणिदागमाहामण एचित्ता, तवायार गिट्ठाए लद्धाए जुत्ता । गरिदा मरिह सा रणदवदी, हुओं तस्स सीमो गणी गमणदी। अमेसाण गधारण पारम्मि पत्ता, नवे अग वीभव्वगईव मित्तो। गुणावासभूओ सुतिल्लोकरणदी महापटिओ तस्म माणिकरणंची। भजगप्पयाओ इमोणाम छदी। -(मुदसणचरिउ प्रशस्ति) ३.जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह भाग २ पृ २५
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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