SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ १०८० मे राजा भोज के राज्यकाल मे रचा है।' चाथो कृति शिवकोटि' को भगवती आराधना का वह टिप्पण है जिसका उल्लेख प० आशाधर जी ने अपन 'मूलाराधना दर्पण' में न० ५८६ गाथा की टीका करते हुए किया है । मुनि श्रीचन्द्र की ये सभी कृतियाँ धारा में ही रचा गई है। उक्त टीका प्रशस्तिया में मुनि श्रीचन्द्र न सागरसेन ओर प्रवचनसन नाम के दा सद्धान्तिक विद्वाना का उल्लख किया है जा धारा निवासी थ । इससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय धारा में अनेक जन विद्वान पार मुनि निवास करते थ। केशिवराजयह सूक्ति सुधाणंव के कर्ता मल्लिकाजुन का पुत्र ओर हायसालवशी राजा नरसिह के कटका पाध्याय सुमनावाण का दाहित्र पार जन्न कवि का भानजा है । इसक बनाय हुए चालपालक चरित्र सुभद्राहरण, प्रबोधचन्द्र, किरात पार शब्दमणि दर्पण य पाच ग्रन्थ है। परन्तु इनमें से केवल शब्दमणि दर्पण उपलब्ध है। यह कर्नाटक भाषा का सुप्रसिद्ध व्याकरण है । इसकी जाड़ का विस्तृत ओर स्पष्ट व्याकरण कनड़ी में दूसरा नहीं। इसकी रचना पद्यमया है। मार इस कारण कवि न स्वय हा इसकी वृत्ति लिख दी है। ग्रन्थ सन्धि, नाम, समास, तद्धित, पाख्यान, धातू, अपभ्रश, अव्यय और प्रयागसार इन आठ अध्यायो में विभक्त है। कवि का समय ई० सन् ६०६० है। पनसेनाचार्ययह किस गण-गच्छ क प्राचार्य थे। यह कुछ ज्ञात नही हुआ। सवत् १०७६ मे पूष सुदी द्वादशी के दिन दवलाक का प्राप्त हुए। इनकी यह निषधिका रूप नगर (किशनगढ़ से) डढ़ मील दूर राजस्थान मे चित्रनन्दी द्वाराप्रतिष्ठित हुई था । इनका समय ईसा की दशवी पार विक्रम ११वी शताब्दी है। विमलसेन पण्डितइनका गण-गच्छ पोर परिचय प्राप्त है । यह मेघसेनाचार्य के शिष्य थे। इनका स० १०७६ ज्येष्ठ सूदी १२ को स्वर्गवास हुआ था। इनकी स्मृति मे निपीधिका बनाई गई। जिन्होने पारधना की भावना द्वारा देवलोक प्राप्त हुआ था। यह निषिधिका राजस्थान के रूप नगर (किशनगढ़ से डेढ़ मील दूर) में बनी हुई है उसमें देवली के ऊपर एक तीर्थकर मूति प्रतिष्ठित है। इनका समय विक्रम की ११वी शताब्दी है । सागरसन सैद्धान्तिकयह प्राकृत सस्कृत भाषा और सिद्धान्त के विद्वान थ । प्रार धाग नगरी में निवास करतेथे । बलात्कार गण के विद्वान मुनि श्री नन्दि क शिप्य मुनि श्री चन्द्र न आपमे महाकवि पुप्पदन्त के महापुराण के विषम-पदो को जानकर प्रौर मल टिप्पण का अवलोकन कर राजा भोज देव के राजकाल में (स० १०८० मे) महापुराण का टिप्पण बनाया था' । इनकी गुरु परम्परा क्या है और उन्होंने क्या रचनाएं रची । इसके जानने का कोई साधन नही है। पर इनका समय विक्रम की ११वी शताब्दी का अन्तिम चरण है। १. श्री विक्रमादित्य.सवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिक सहस्र महापुराण विषम पद विवरण मागग्मन सैद्धान्तात् परिज्ञाय मूल टिप्पणिवा चालोक्य कृत मिद समुच्चय टिप्पण अज्ञपातभीतन श्रीमद्ब लात्कारगण श्री नन्द्याचर्य सत्कविशिष्यण श्री चन्द्र मुनिना निजदोर्दण्डाभिभूरिपुराज विजयन. श्री भोजदेवस्य । -उत्तर पुराटिप्पण प्रशस्ति । २. “स०१०७६ पीप सुदी १२ श्री पद्मसेनाचार्य देवलोक गतः, । चित्रनन्दिना प्रतिप्ठेय । "१०३६ (७६) श्री पपसनाचार्य देवलोक गतः दवन्दिना प्रतिष्ठेय । ३. स. १०७६ ज्येष्ठ सुदी १२ मेघसेनाचार्यस्य तस्य शिष्य विमलसेन पडितेन (आ) राधना (भावना)' भावयित्वा दिवंगतः (तस्यय निषिधिका) ४. 'श्री विक्रमादित्य-संवत्सर वर्षाणाशीत्यधिक सहस्र महापुगण-विषम पद विवरण सागरमेन सैद्धान्तात् परिज्ञाय मूल टिप्परिणका चालाक्य कृतमिद समुच्चय टिप्पण अज्ञ पातभीतेन श्री मबलात्कारण श्री नद्याचार्य सन्कविशिष्यण। चन्द्र मुनिना निजदोर्दण्डाभिभूत रिपुराज्य विजयिनः श्री भाजदेवस्य ।"
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy