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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ इनके शिष्य वीर नन्दी थे, जो चन्द्रप्रभचरित के कर्त्ता हैं। इनके दूसरे शिष्य इन्द्रनन्दी भी थे । गोम्मटसार के कर्ता नेमिचचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी अभयनन्दी को अपना गुरु माना है और उन्हें नमस्कार किया है, णमिऊण अभयदि' 'अभयदि वच्छेण' जैसे वाक्यों द्वारा अभयनन्दि का स्पष्ट उल्लेख किया है । इनका समय विक्रम की दशवीं शताब्दी का उपान्त्य और ११वीं शताब्दी का प्रथम चरण है । २६० वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती - नन्दिसंघ और देशीय गण के आचार्य थे । यह मुनि विबुध गुणनन्दि के प्रशिष्य और अभयनन्दि के शिष्य थे। जो मुनियों के द्वारा बन्दनीय थे । और जिन्होंने मिथ्याप्रवाद को विनष्ट किया था । सम्पूर्ण गुणों में समृद्ध थे, और भव्य लोगों के श्रद्वितीय बन्धु थे । इनके शिष्य वीरनन्दी भव्य जन रूपी कमलों को विकसित करने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी, गुणों के धारक थे और जिन्होंने सम्पूर्ण वाङमय को अधीन कर लिया था। वे कुतर्कों को नाश करने वाले प्रख्यात कीर्ति थे । भव्याम्भोज विबोधनोद्यतमते भास्वत्समान त्विषः, शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभूत । स्वाधीनखिल वाड.मयस्य भुवनप्रख्यात कीर्तेः सता, संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचः कुतर्काङ्क ुशा ॥४ एक गाथा में बतलाया गया है कि जिनके चरण प्रसाद से वीरनन्दी इन्द्रनन्दी शिष्य अनन्त संसार से पार हो गए उन अभयनन्दी गुरु को नमस्कार है । गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चन्द्रवर्ती ने भी इन्द्रनन्दि को अभयनन्दि श्रौर वीरनन्दी को अपना गुरु बतलाया है। अभयनन्दी के चार शिष्य थे । वीरनन्दी, इन्द्रनन्दि, कनकनन्दी और नेमिचन्द्र । नेमिचन्द्र ने अपने को स्वयं अभयनन्दि का शिष्य सूचित किया है । नेमिचन्द्र ने अभयनन्दी के साथ इन्द्रनन्दि गुरु को भी नमस्कार किया है और श्रुतसागर का पार करने वाला विद्वान् सूचित किया है । वीरनन्दी विशिष्ट दार्शनिक और प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । आपकी एकमात्र कृति चन्द्रप्रभचरित काव्य है । इस ग्रन्थ की कथा वस्तु का आधार उत्तर पुराण है । वीर नन्दी ने उत्तर पुराण के अनुसार ही आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ के चरित्र का चित्रण किया है । यह ग्रन्थ १८ सर्गों में विभक्त है । जिसकी श्लोक संख्या १६९१ है । अन्तिम प्रशस्ति के ६ श्लोक उससे भिन्न हैं । यह काव्य शृंगार, वीर, बीभत्स, भयानक और शान्तादि रसों तथा उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्थान्तर न्यास और अतिशयोक्ति प्रादि अलंकारों से अनुस्यूत है । रचना सरस और प्रसाद गुण से भरपूर है । कृति में कवि ने उसके रचना काल श्रादि का कोई उल्लेख नहीं किया, इस कारण ग्रन्थ के रचना काल का निश्चित उल्लेख तो नहीं किया जा सकता । किन्तु प्राचार्य वादिराज ने अपने पार्श्वनाथ चरित में (शक संo १४७ सन् १०२५) में चन्द्रप्रभचरित और उसके रचयिता वीरनन्दी का स्मरण किया है। इससे स्पष्ट है कि सन् १०२५ (वि० सं० १०८२) से पूर्व चन्द्रप्रभचरित की रचना हो चुकी थी । अब यह विचारणीय है कि वह कितने पहले हुई होगी । वह वि० सं० १०२५ के लगभग की रचना जान पड़ती है । अर्थात् वे ११वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् हैं । १. स तच्छिष्योज्येष्ठः शिशिर कर सोम्यः समभवत् । प्रविख्यातो नाम्ना बिबुधगुण नन्दीति भुवने ॥ चन्द्र प्रभचरित प्रशस्ति २. जस्सय पाय पसाएण गंतसंसार जलहि मुत्तिष्णे । वीरिदंगंदि वच्छो णमामि तं प्रभयादि गुरु ।। - गो० क० ४३६ ३. इदिनेमिचंद मुरिणरणा अप्पसुदेरण भयरदि वच्छेण । रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहु सुदायरिया ॥ - त्रिलोकसार ४. गमिऊण अभयदि सुदसायर पारगिदं णंदि गुरु । वरवीरनंदिरणाहं पयडीरणं पच्चयं बोच्छं ॥ ७८५ ५. चन्द्र प्रभासि सम्बद्धा रस पुष्ट मनः प्रिया । कुमद्वतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ॥ ३० - पार्श्वनाथ चरिते वादिराजः
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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