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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २५४ उल्लेख है । (कुर्ग इनकृप्सन्स सन् १९१४ नं० ३४ गोपनन्दी गोपनन्दि-यह मूलसंघ, देशिय गण और वक्रगच्छ के देवेन्द्र सिद्धान्त देव के समकालीन शिष्य थे। यह चतुर्मुखदेव इसलिये कहलाये, क्योंकि इन्होंने चारों दिशाओं की ओर मुख करके पाठ-पाठ दिन के उपवास किये थे। प्रस्तुत गोपनन्दी अद्वितीय कवि और नैयायिक थे, इनके सम्मुख कोई वादी नहीं ठहर सकता था। इन्होंने धूर्जीट जैसे विद्वान् की जिह्वा को भी बन्द कर दिया था । परम तपस्वी, वसुधैव कुटुम्ब, जैन-शासनाम्बर के पूर्णचन्द्र, सकलागमवेदी और गुणरत्न विभूपित थे । देशीय गण के अग्रणी थे और व्रतीन्द्र थे। इनके सधर्मा धाराधिप भोजराज द्वारा पूजित प्रभाचन्द्र थे । होयसल नरेश एरेयंग ने शक स० १०१५ सन् १०६३ (वि० सं० ११५०) में उक्त गोपनन्दी को जीर्णोद्धार आदि कार्यों के लिये दो ग्राम दान में दिये थे। (वृषभनन्दी--जीतसार समुच्चय के कर्ता) यह नन्दनन्दी के वत्स और श्रीनन्दी के चरण कमलों के भ्रमर थे। गुरुदास भी उन्ही के शिप्य थे। जिन्हें तीक्ष्णमति और 'सरस्वतीसूनु' प्रकट किया है। जैसा कि ग्रन्थ प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है। श्रीनन्दि नन्दिवत्सः श्रीनन्दी गुरुपदाज षटचरणः । श्रीगुरुदासो नंद्यात्तीक्ष्णमतिः श्री सरस्वतीसूनुः ॥५॥ वषभनन्दी ने उक्त नंद नंदी मुनिराज को शास्त्रार्थज्ञ, पंक धारी, तपांक सिद्धांतज्ञ, सेव्य ओर गणेश जैसे विशेषणों के साथ स्मृत किया है। इनके चार शिप्यों का उल्लेख मिलता है, परन्तु उनके एक प्रमुख शिष्य गुरुदासाचार्य भी थे। नन्दनन्दी के शिष्यों में अपने से पूर्ववर्ती दो गुरुभाइयों श्री कीति और श्री नन्दी का नामोल्लेख किया है। और अपने उत्तरवर्ती एक गुरु भाई हर्षनन्दी का अनजरूप में उल्लेख किया है। जिसने ग्रन्थ की सुन्दर प्रतिलिपि तैयार की थी। वृषभनन्दी ने कौण्डकुन्दाचार्य के जीतसार का सम्यक प्रकार अवधारण किया था, इसी कारण उन्होंने अपने को 'जीतसाराम्बुपायी' (जीतसार रूप अमृत का पान करने वाला) प्रकट किया है चार्य का यह ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण रूप में मान्यखेट में सिद्धान्तभूषण नाम के सैद्धान्तिक मुनिराज ने एक मंजूषा में देखा था। और प्रार्थना करके प्राप्त किया था, और उसे पाकर वे सभरी स्थान को चले गए थे। उन्होंने वृषभनन्दी के हितार्थ उसकी व्याख्या की थी, जिसका जीतसार समुच्चय में अनुसरण किया गया है। प्रा० अभयनन्दी प्रभयनन्दी विबधगणनन्दी के शिष्य थे। यह अपने समय के समस्त मुनियों के द्वारा मान्य विद्वान थे। इन्होंने जैनधर्म के विषय में परम्परागत प्रवर्णवादों-मिथ्या प्रवादों-को दूर किया था। इनके द्वारा जैन धर्म की बडी प्रभावना हई थी। ये समुद्र की भांति गंभीर एवं सूर्य की तरह तेजस्वी थे। अत्यन्त गुणी और मेधावी थे। भव्य जीवों के एक मात्र बन्धु तथा उद्बोधक थे। जैसा कि चन्द्रप्रभचरित प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है: "मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः, सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः। प्रभवद् प्रभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी, स्वमहिमजितसिन्धुभव्यलोककबन्धुः॥" १.जन शिला लेख सं० भाग १ पृ० ११७ २. (एपि ग्राफिया कर्णाटिका जि० ५, ३. अनुज श्री हर्ष नदिना सुलिख्य जीतसार शास्त्रचमुज्वलोध तं ध्वाजापते (जीत ममुच्चयसार अजमेर भंडार प्रति)
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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