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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २५५ कवि मान्यखेट में रहे, उसके बाद वे कितने वर्ष तक जीवित रहे, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। पर मान्यखेट की लूट से कोई १५ वर्ष के लगभग सं० १०४४ में बुध हरिपेण ने अपनी धर्म परीक्षा बनाई । उसमें पुष्पदन्त का उल्लेख किया है । उस समय पुष्पदन्त काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। इसी से उन्होंने लिखा है कि- पुष्पदन्त जैसे मनुष्य थोड़े ही हैं उन्हें सरस्वती देवी कभी नही छोड़नी - सदा साथ रहती है'। कवि ने ग्रन्थ में धवल - जयधवल ग्रन्थ का उल्लेख किया है। जिनसेनाचार्य ने अपने गुरुवीरसेन द्वारा अधूरी छोड़ी हुई जयधवला टीका को शक मं० ७५६ में राष्ट्रकूट राजा अमोघ वर्ष प्रथम के राज्य समय समाप्त की थी । अतः पुष्पदन्त उक्त संवत् के बाद हुए हैं। और हरिषेण ने अपनी धर्म परीक्षा वि० सं० १०४४ शक सं० ६०६ में समाप्त की है कवि ने अपने ग्रन्थों में डिग, शुभग, वल्लभ नरेन्द्र चोर कव्हराय नाम से कृष्णराज (तृतीय) का उल्लेख किया है । मान्यखेट को अमोघ व प्रथम ने शक गं० ७३७ में प्रतिष्ठित किया था । पुष्पदन्त ने मान्यवेट नगरी को कृष्णराज की हाथ की तलवाररूपी जलवाहनी से दर्गम ओर जिसके धवल ग्रहों के शिखर मेधावली से टकराने वाले लिखा है। इस सब विदेचन पर पुष्पदन्त का समय शक सं० ८५० से ८९४ मे बाद तक रहा प्रतीत होता है अर्थात् वे ईसा की दशवी और विक्रम की ११वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् है । रचनाएं कवि पुष्पदन्त की तीन रचनाएं मेरे सामने - महापुराण, नागकुमार चरित्र और जसहर चरिउ । महापुराण - दो खण्डों में विभाजित है- प्रादिपुराण और उत्तरपुराण आदिपुराण में ३७ संधियां हैं i जिनमें आदि ब्रह्मा ऋषिभदेव का चरित वर्णित है । ओर उत्तरपुराण की ६५ सन्धियों में अवशिष्ट तेईस तीर्थकरों, १२ चक्रवर्तीयों, नवनारायण, नव प्रतितायण और बलभद्राद्रि त्रेसठ शलाका पुरुषों का कथानक दिया हुआ है। जिसमें रामायण और महाभारत की कथाएं भी संक्षिप्त में ग्रा जाती हैं। दोनों भागों की कुल सन्धियां एक सौ दो हैं, जिनकी अनुमानिक श्लोक संख्या बीस हजार से कम नहीं है । महापुरुषों का कथानक अत्यन्त विशाल है और अनेक जन्मों की अवान्तर कथाओं के कारण और भी विस्तृत हो गया है। इससे कथा सूत्र को समझने एवं ग्रहण करने में कठिनता का अनुभव होता है । कथानक विशाल और विशृंखल होने पर भी बीच-बीच में दिये हुए काव्यमय सरस एवं सुन्दर प्राख्यानों से वह हृदय ग्राह्य हो गया है। जनपदों, नगरों श्रौर ग्रामों का वर्णन सुन्दर हुआ है । कवि ने मानव जीवन के साथ सम्बद्ध उपमानों का प्रयोग कर वर्णनों को अत्यन्त सजीव बना दिया है । रस और अलंकार योजना के साथ पद व्यंजना भी सुन्दर वन पड़ी है साथ ही अनेक सुभाषितों वाग्धाराओं से ग्रन्थ रोचक तथा सरस बन गया है । ग्रन्थों में देशी भाषा के ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त हुए हैं जिनका प्रयोग वर्तमान हिन्दी में भी प्रचलित है । कवि ने यह ग्रन्थ सिद्धार्थ संवत् में शुरू किया और क्रोधन संवत्सर की प्राषाढ़ शुक्ला दशमी के दिन शक संवत् ८८७ (वि० सं० १०२२) में समाप्त किया। उक्त ग्रन्थ राष्ट्रकूट वंश के अन्तिम सम्राट कृष्ण तृतीय के महामात्य भारत के अनुरोध से बना है । ग्रन्थ की संधि पुष्पकाओं के स्वतंत्र संस्कृतपद्यों में भरत प्रशंसा और मंगल कामना की गई है । महामात्य भरत सव कलाओं और विद्याओं में कुशल थे, प्राकृत कवियों की रचनाओं पर मुग्ध थे । उन्होंने सरस्वती रूपी सुरभिका दूध जो पिया था । लक्ष्मी उन्हें चाहती थी, वे सत्य प्रतिज्ञ और निर्मत्सर थे १. पुष्परांत गवि मारण बुच्चर, जो सरमइए क्यावि र मुच्चइ ॥ धर्मं परीक्षा प्रशम्ति २. जेट्टा विउ सुत्तउ सीह के सांतेहुए सिंह को किसने जगाया । मा भंगुवर मरगा जीविउ - अपमानित होकर जीने से मत्यु भली है । को तं सइ गिडालs लिहियउगस्तक पर लिखे को कौन मेंट सकता है । ३. कप्पड = कपड़ा, अवसें = अवश्य हट्ट हाट (बाजार ) तोदे थोंद (उदर) लीह - रेखा (लोक), चंग - अच्छा, डरभय, डाल – शोखा, लुक्क लुकना (छिपना) आदि अनेक शब्द हैं जिन पर विचार करने से हिन्दीके विकास का पता चलता है। ४. कोहण संच्छर आसाढ दहमइ दियहि चंद रूढ | - उत्तर पुराण प्रशस्ति ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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