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________________ २५४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ विक्रम की दशवी दाताब्दी का अन्तिम भाग और ११वी शताब्दी का पूर्वार्ध है । क्योंकि उन्होंने अपना महापुराण सिद्धार्थ सवत्सर शक सं८८१ में प्रारम्भ किया था। उस समय मेलपाटी या मेलाडि में कृष्णराज मौजूद थे। तब पुष्पदन्त मेलपाटी में महामात्य भरत से मिले और उनके अतिथि हुए और उन्होंने उसी वर्ष में महापुराण शुरु कर उसे शक सं० ८८७ (सन् ६६५) वि० सं० १०२२ में समाप्त किया । समय विचार महाकवि पुष्पदन्त वरार प्रान्त के निवासी थे । क्यों कि उनकी रचना में महाराष्ट्र भाषा के अनेक शब्द पाये जाते है। जिनका उपयोग उसी देश में होता है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा है कि ग० वा० तगारे एम.ए. बी. टी. नाम के विद्वान् ने पुष्पदन्त को मराठी भाषा का महाकवि लिखा है। प्रोर उनकी रचनाओं में से ऐसे बहुत से शब्द चुनकर बतलायें हैं, जो प्राचीन मराठी भाषा से मिलते जुलते हैं । मार्कण्डेय ने अपने 'प्राकृत सर्वस्व ' में अपभ्रंश भाषा के नागर, उपनागर और ब्राचट तीन भेद किये है। इनमें ब्राचट को लाट (गुजरात) और विदर्भ ( वरार) की भाषा बतलाया है। इससे पुष्पदत्त के ग्रन्थों की भाषा वाचट होनी चाहिये । पुष्पदन्त के समकालीन राष्ट्रकूटवंश के राजा कृष्ण तृतीय है । कवि पुष्पदन्त ने स्वयं अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ के समय तीसरे कडवक में कृष्ण राज तृतीय का मेलपाटी में रहने का उल्लेख किया है ओर उसे चोड देश के राजा का शिर तोड़ने वाला लिखा है उवद्ध जूड् भूभंगभीसु तोडे प्पिणु चोडहो तणउसीसु । भुक्कराम रायाहिराउ, जहिश्रच्छइ तुडिंगु महाणुभाउ । तं दणदिण्णधण कणय पयर, महि परि भमंतु मेपाडिण्यरु || वे महाप्रतापी सार्वभौम रजा थे। इनके पूर्वजों का साम्राज्य उत्तर में नर्वदा नदी से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैला हुआ था। जिसमें सारा गुजरात, मराठी म० प्र० और निजाम राज्य शामिल था । मालवा और बुन्देलखण्ड भी उनके प्रभाव क्षेत्र में थे। इस विस्तृत साम्राज्य को कृष्ण तृतीय ने और भी अधिक बढ़ाया और दक्षिण का सारा अन्तरीप भी अपने अधिकार में कर लिया था। उन्होंने लगभग ३० वर्ष राज्य किया है । वे शक म० ८६१ के आस-पास गद्दी पर बैठे होंगे। वे कुमार अवस्था में अपने पिता के जीते जी राज्य कार्य संभालने लगे थे । पुष्पदन्तशक सं०८८१ में इन्हीं के राज्य में मेलपाटी पहुचे थे ग्रार से राजा कृष्ण की मृत्यु के बाद भी वहां रहे है । क्योंकि धारा नरेश हर्षदेव ने खोट्टिग देव की राज्यलक्ष्मी को लूट लिया था। धनपाल ने अपनी 'पायलच्छी नाम माला' में लिखा है कि वि० सं० १०२९ में मालव नरेन्द्र ने मान्यवेट को लूटा इसका समर्थन उदयपुर ( ग्वालियर) के शिलालेख में अकित परमार राजाओं की प्रशस्ति से भी होता है । मेलपाटी के लूटे जाने पर पुष्पदन्त को भी उसका बड़ा खेद हुआ ओर उन्होंने भी उसका उल्लेख निम्न पद्य में किया है दीनानाथ धनं सदाबहुजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनं । मान्यखेटपुरं पुरदरपुरी लीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथ नरेन्द्र कोप-शिखिना दग्धंविदग्ध प्रियं । वेदानों वर्सातकरिष्यति पुनः श्री पुष्पदन्तः कविः ॥ शक सं० ८६४ में मान्यखेट के लूट लिये जाने के बाद भी पुष्पदन्त वहां रहे हैं । कवि का जसहचरिउ उस समय समाप्त हुआ जब मान्य सेट लूटा जा चुका था । इससे स्पष्ट है कि शक मं०८८१ से ८७४ तक १३ वर्ष १. उक्कुरड - उकिरडा (घूग), गजोल्लिय - गांजलेले (दुखी), चिक्विल्ल - चिखल (कीचड़ ), तुप्प - तूप (घी), फेड फेडणे (लौटाना । बोक्कड़ - बोकड (बकरा ) आदि, देखो सहयाद्रि मासिक पत्र अप्रैल १९४१ का भक, पृ० २५३, ५६ । २. विक्कमकालम्स गए अउरगतीमुत्तरे सहग्गम्मि । मानवर्णारद धाडीए लूडिए मण्णबेडम्मि ॥ २७६ ३. 'श्री हर्षदेव इति खोट्टिगदेव लक्ष्मी, जग्राह यो युधिनगादसमप्रतापः || |
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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