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________________ २४४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ उसने सात रात्रि तक निरन्तर वर्षा की। जिससे वर्षा का पानी पार्श्वनाथ के कंधो तक पहुंच गया। उसी समय धरणिद्र का पासन कम्पायमान हुआ, उसने भगवान पार्श्वनाथ का उपसर्ग जानकर उनकी रक्षा को। उपसग दूर होते ही भगवान को केवलज्ञान हो गया ओर इन्द्रादिक देव केवलज्ञान कल्याणक की पूजा करने आये। कमठ के जीव उस संवरदेव ने अपने अपराध की क्षमा मांगी और वह उनकी शरण में पाया। उस समय जो अन्य तपस्वी थे वे भी सब पाश्र्वनाथ की शरण में आकर सम्यक्त्व को प्राप्त हुए। प्रफुल्ल कुमार मोदी ने 'पासारउ' की प्रस्तावना में पद्मकीर्ति के इस ग्रंथ का रचना काल शक सं० REE बतलाया है। जबकि ग्रन्थकर्ता ने समय के साथ शक या विक्रम शब्द का प्रयोग नहीं किया, तब उसे शक संवत कैसे समझ लिया गया। दूसरे पद्मकीति ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है उसमें चन्द्रसेन, माधवसेन, जिनसेन और पद्मकीर्ति का नामोल्लेख है। ग्रन्थ में कर्नाटक महाराष्ट्र भाषा के शब्दों का उल्लेख होने से उन्हें दाक्षिणात्यं मान कर शक संवत् की कल्पना कर डाली है। हिरेआवली के लेख में चन्द्रप्रभ और माधवसेन का उल्लेख देखकर तथा चन्द्रप्रभ को चन्द्रसेन मान कर उनके समय का निश्चय किया है, जबकि उस लेख में माधवसेन के शिष्य जिनसेन का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसी स्थिति में पद्मकीति के गुरु जिनसेन का कोई उल्लेख न होने पर भी उक्त चन्द्रप्रभ ही चन्द्रसेन और जिनसेन के प्रगुरु होंगे। यह कल्पना कुछ सगत नहो कही जा सकती, और न इस पर से यह फलित किया जा सकता है कि ग्रन्थकता पद्मकाति शक सं० ६६ के ग्रथकार है-इसके लिए किन्ही अन्य प्रामाणिक प्रमाणा की खाज आवश्यक है नये प्रमाणो के अन्वपण हान पर नय प्रमाण सामन प्रायग, उन पर से पद्म काति का समय विक्रम का दशवा या ग्यारहवीं शताब्दी निश्चित होगा। अनन्तवीर्य अनन्तवीर्य-जिनका मटोल (बीजापुर बम्बई) के शिलालेख में निर्देश है। यह शिलालेख चालुक्य जयसिंह द्वितीय और जगदेकमल्ल प्रथम (ई० सन् १०२४) के समय का उपलब्ध हुआ है। इसमें कमल देव भट्टारक, विमुक्त वतीन्द्र सिद्धान्तदेव, प्रण्णिय भट्टारक, प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य का क्रमश: उल्लेख है। ये अनन्तवीर्य समस्त शास्त्रों के विशेषकर जैनदर्शन के पारगामी थे । अनन्तवीर्य के शिष्य गुणकीति सिद्धान्त भट्टारक और देवकीति पण्डित थे। ये संभवतः यापनीय संघ और सरस्थगण के थे। कनकसेन चंद्रिकावाट सेनान्वय के विद्वान वीरसेन के शिष्य थे। यह वोरसेन कुमारसेनाचार्य के संघ के साधुओं के गुरु थे। इनका समय पी० बी० देशाई ने ८९० ई. बतलाया है। और कूमारमेन का समय ८६० ई० निदिष्ट किया है. चिकार्य ने मूलगुण्ड में एक जैन मन्दिर बनवाया था। उसके पूत्र नागार्य के छोटे भाई अरसार्य ने, जो नीति और आगम में कुशल था, और दानादि कार्यों में उद्युक्त तथा सम्यक्त्वी था। उसने नगर के व्यापारियों की सम्मति से एक हजार पान के वृक्षों के खेत को मन्दिरों की सेवा के लिये कनकसेन को शक संवत्० ८२४ सन् १०३ ई० को अर्पित किया था। अतएव इन कनकसेन का समय ईसा की नौवीं शताब्दी का उपान्त्य और दशवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। -(जैन लेख संग्रह भा० २ पृ० १५८) अर्हनन्दी अड्डकलिगच्छ और बलहारिगण के सिद्धान्त पार दृष्टा सकलचन्द्र सिद्धान्त मुनि के शिष्य अप्पपोटि १. जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० १०५ २. जैनिज्म इन माउथ इंडिया, पी. वी. देशाई पृ० १३६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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