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________________ नवमी-दशवी शताब्दी के आचार्य २४३ गणी ने तो नेमिनाथ के भित्ति चित्रों को पार्श्वनाथ के वैराग्य का कारण लिखा है । दिगम्बर परम्परा में नाग घटना को वैराग्य का कारण लिखा है। इस मान्यता में कोई सैद्धान्तिक हानि नही है । वादिराज ने पार्श्वनाथ के वैराग्य को स्वाभाविक बतलाया है । पार्श्वनाथ ने विवाह नही कराया, उन्हे वैराग्य हो गया। मूल आगम समवायाग और कल्पसूत्र में भी पार्श्वनाथ के विवाह का वर्णन नही है। उन्हे बाल ब्रह्मचारी प्रकट किया है। किन्तु वाद के श्वेताम्बराचार्य शीलाक, देवभद्र और हेमचन्द्र ने उन्हे विवाहित बतलाया है । मचन्द्र ने १२ वे तीर्थकर वासुपूज्य को बालब्रह्मचारी प्रकट करते हुए पार्श्वनाथ को भी अविवाहित (ब्रह्मचारा) बतलाया है । आ० शीलाक ने उन्हे 'चउपन्न पुरिसचरिउ' में दारपरिग्रह करने और कुछ काल राज्य पालन कर दीक्षित होने का उल्लेख किया है । जबकि हेमचन्द्र ने बालब्रह्मचारी लिखा है । एक ही ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ में एक स्थान पर पार्श्वनाथ को बाल ब्रह्मचारी लिखे और दूसरी जगह उन्हें विवाहित लिखे, इसे समुचित नहीं कहा जा सकता । दिगम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थकारों ने - यतिवृषभ, गुणभद्र, पुष्पदन्त, वादिराज योर पार्श्वकीर्ति आदि ने उन्हें विवाहित हो लिखा है । पार्श्वनाथ के वैराग्य का कारण कुछ भी रहा हो, पर उनके वैराग्य को लोकान्तिक देवों ने पुष्ट किया । पार्श्वनाथ ने दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण किया। वे एक बार भ्रमण करते हुए उत्तर पंचाल देश की राजधानी अहिच्छत्रपुर के बाह्य उद्यान में पधारे। दोष रहित, वे मुनि कायात्सर्ग में स्थित हो गए, गिरीन्द्र के समान वे ध्यान में निश्चल थे । ध्यानानल द्वारा कर्म समूह को दग्ध करने का प्रयत्न करने लगे। उनके दोनों हाथ नीचे लटके हुए थे, उनकी दृष्टिनामाग्र थी, वे समभाव के धारक थे, उनका न किसी पर रोप था यार न किसी परनेह, वे मणिकचन को धूलि के समान, सुख, दुख, शत्रु मित्र को भी समानभाव मे देखते थे। जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है तहि फासू जोउवि महिमएस, थिइ काश्रसग्गे विगय-दोसु । काल- पूरिउमणिमुदि, थिउ प्रविचल णावs गिरिवरद् । प्रलंबिय कर यलु भाणु दक्ख, णासा- सिहरि मुणवद्ध चक्ख । सम-सत्तु - मित्त-सम-रोस-तोस, कंचण-र्माण पेक्खइ धूलि सरिसु सम- सरिस पेक्खइ दुक्ख सोक्ख, वंदिउ णरवर पर गलइ मोक्ख ॥। - पामणाहचरिउ ३४-३ कमठ का जीव जो यक्षेन्द्र हुआ था विमान द्वारा कही जा रहा था। वह विमान जब पार्श्वनाथ के ऊपर आया, तब रुक गया । विमान रुकने का उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, वह नीवे श्राया, तब उसने पार्श्वनाथ को ध्यानस्थ देखा, उन्हें देखते ही पूर्व भव के बेर के कारण उसने उन्हें ध्यान से विचलित करने का उपक्रम किया। परन्तु वे ध्यान में अविचल थे, उसमे वे जरा भी विचलित नहीं हुए । तब उसने रुट होकर पार्श्वनाथ पर घोर उपसर्ग किया । जब वे उससे भी विचलित नही हुए, तब उसने अत्यन्त रुष्ट होकर भयानक उपसर्ग किये, घनघोर वर्षा की। २. दूत्थ पितृवचः पानोऽप्युल्लधयितु मनीश्वरः । भोग्यकर्म क्षपयितुमुदवाह प्रभावतीम || - त्रिपटिशनारा पुरपचरित्र पर्व लो० २१० ३. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरिन पर्व लोक १०२ पृ०३८ तथा 6 मल्लिनेंमिपावरति भाविनोऽपि त्रयोजिनाः । जकृतोद्वाहोऽकृतराज्यः प्राब्रजिष्यन्ति मुक्तये ।। त्रिपष्टिगलावा पुरप चरित पर्व ४ १०३ पृ० ३८ ४. ततो कुमारभावमग्गुवालिऊण किचिकाल कयदार परिग्गहो रायगिरि मणुवालिऊरग...। ५. घोरु भीमु उपसग्गु करत हो, मीयलु सतिल - गियरु वरिसत हो । बोलिउ मत्तह रत्तिरिणरतरु, तो विरण असुरहो मणुणिम्मच्छरु । जिह जिह मलिल पड घरण मुक्कउ तिह तिह वधि जिग्गिद हो टुक्कउ तो विग्ग चल चित्त तहो धीर हो, वालुवि क इ साहि सरीर हो । जलुलघिउ खधि जिरिगट हो, आमा चलिउ नाम घरगद हो । - चउपन्न पुरिमचरिउ पृ० १०४
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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