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________________ १६० जन धर्म का प्राचीन इतिहास -- भगा: अपने छन्द ग्रन्थ में मारुत देव का उल्लेख किया है। बहुत संभव है कि वे कवि के पिता ही हों। पुत्र द्वारा पिता को कृतिका उल्लिखित होना कोई आश्चर्य की बात नही है। कवि को तोन पत्निया थी। आदित्य देवी जिसने अयोध्या काड लिपि किया था। दूसरी प्रामिअव्वा (अमनाम्बा) जिसने पउमचारय के विद्याधर काण्ड की २० संधियां लिखवाई थी। और तास पवित्र गर्भ से त्रिभुवन स्वयभू जमा प्रतिभासम्पन्न पुत्र उत्पन्न हुया था, जो अपने पिता के समान हा विद्वान और कवि था। इसके सिवाय अन्य पुत्रादिक का कोई उल्लेख नहा मिलता। किम जान पड़ता है कि स्वयंभू के अन्य पूत्र भी थे । क्याकि स्वयभू ने पउम चारउ की प्रशस्ति के शाटवे पद्य में तिहुयण स्वयभू लहुतण उ, वाक्य द्वारा त्रिभुवन स्वयभू को लघु पुत्र कहा, लघु पुत्र कहने से अन्य पुत्रों के होने का भी सोन मिलता है। विभवनने अनेक जगह अपने पिता के सम्बन्ध म बहुत सी बात कही है । उनी स्पष्ट ज्ञात होता है कि स्वयभूक कई पुत्र प्रार शिप्य थे। अन्य पूत्र तो धन के पीछे दाड़, किन्तु त्रिभुवन का पिता को साहित्यिक बिरामत मिली । कविवर स्वयम् शरीर से दुबले-पतले और उन्नत थे, उनका नाक चपटी और दान विरल । कवि स्वयंभू कोशल देश के निवासी थे। जिन्हें उत्तरगय भारत के आ-मण के समय राष्ट्रकूट राजा ध्रुव का मत्री रयडा धनंजय मान्य वेट ले गया था। राजा ध्रव का राज्यकाल वि० म. ८३७ से ८५१ तक रहा है । धनजय, धवलइया पार वदइया ये तीनों हा पिता पुत्रादि के रूप में सम्बद्ध जान पहले है। उनका कवि के ग्रन्थ निर्माण में सहायक रहना श्रुत भक्ति का परिचायक है। समय कवि ने ग्रन्थ में अपना काई समय नहीं दिया है, परन्तु पनचरित के कर्ता रविपण का स्मरण जरूर किया है। प्राचार्य रविपण ने पद्मचरित को वीर निर्वाण स० १२०३ वि० सं०७३३ में बनाकर समाप्त किया है। अत: व वि० स० ७३३ के बाद किमो समय हुए है। श्रद्धय पं० नाथगम जी प्रमीने लिखा है कि-स्त्रयभूने रिट्रणेमि चरित में हरिवश पूराण के कर्ता पुन्नाट सधी जिनमेन का उल्लेख नहीं किया, हो सकता है कि उक्त उल्लेख किसी कारण छट गया हो, या उन्हें लिखना स्वय याद न रहा हो । रितुणभिचारउ का ध्यान गे समीक्षण करने पर या अन्य सामग्री से अनुसन्धान करने पर यह स्पष्ट जरूर हो जायगा कि ग्रन्थकती ने उसको रचना में उसका उपयोग किया या नही । भट्टारक यशः कातिके उद्धार काल में पूर्व की कोई प्रति १५ वी शताब्दी को लिखो हई कहीं मिल जाय तो उस समस्या का हल शोघ्र हो सकता है। स्वयभू के पुत्र त्रिभवन स्वयंभू ने 'रिटणे मिचरिउ' की १०४ वा मधि में प्राकृत-मस्कृत और अपभ्रश के ७० कलग-भग पूर्ववर्ता कविया के नाम गिनाय हे । उनमें जिन मनाचार्य पार गुणभद्राचाय का भी नामाल्नख किया है। उनका उल्लेख निम्न प्रकार है : दविल, पचाल, गयन्द, ईश्वर, गाल, कठाभरण, मोहाकलस (मोहकलश) लोलुय (लोलुक) बन्धुदत्त, हरिदत्त, दाल, वाण, पिगल, कलमियक, कुलचन्द्र, मदनादर, गाड, श्रीमघात, महाकवि तु ग, चारुदत, रुद्दड (रुद्रट) जि. कविल अहिमान, गुणानुराग, दुग्गह, ईसान, इद्रक, वस्त्रादन, णारायण, महट्ट, साहप्प, कातिरण, पल्लवकित्ति गणद्ध, गणश, भासड, पिशुन, गोबिन्द, याल (बनात) विसयड, णाग, पण्डणत्त, मुग्राव, पनलि, वीरसेन मल्लिपण मधुकर चतुरानन (च उमुख) सघसेन, यकुय, वर्द्धमान सिद्धसन, जाव या जीवदव, दयोरिद, मेघाल, विलालिय, पुण्डरीक, वसुदेव, भी उय, प्रहरीक, दृढ़मति, गृहत्थि भावक्ष, यक्ष, द्रोण, पणभद्र, श्रीदत्त धर्मगन, जिनसेन, १. मनो वि जगोमोहइ णित्ताग विदन दव्य मनाण। तिहुवरण मंयभूणा पुणू गहिय मृगाःत्त-मनागा ॥ -अन्तिमनग ३, ७, 6 और १० २. अदनााण पईहर गले छिब्बर गासे पविग्लदते ।। १० च०१० २४ ३. हिन्दी काव्यधारा पृ० २३
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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