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________________ नवमी-दशर्वी शताब्दी के आचार्य १८६ पानी को भी कड़ा कर दिया था । उसका राज्य उत्तर में गगा के तट तक रहच गया था। लाकमेन को प्रशस्ति के अनुसार उस समय वही सम्राट था। उन समय बापुर जन-धन मान नगर था, उम वनवाग देश को राजधानी बनने का भी गारव प्राप्त हे लोकरीन वकार के नियामो थे । यर जिम स्लिा।।लाकान ने उत्तर पुराण की अपनी प्रशस्ति के १५ व पद्य में गणभद्राचार्य की स्तुति करते हुए लिखा है ।क- । गणद्राचार्य जयवन रहे, जो समस्त योगियो के द्वारा वन्दन य है, मब श्रेष्ठ कादया | अग्रगाह, जात्र.यों के द्वारा वन्दना करने योग्य है, जिन्होंने मदन के विलास का जी- लिया है, जिनका कानि: ।। पनाका समस्न दिशा प्रा 7 फटग रहा है। जा पापरूपी वृक्ष का काटने के लिये कठार के समान है, और समस्त गजामा के द्वारा वन्दनीय ।' लोकसेन ने यह प्रशस्ति महामगलकारी पिगल नामक टाक सवत धावग वदि चमोतुरुवार के दिन, पूर्वा फाल्गणी स्थित सिहलग्न भ, जबकि बुध पातानक्षत्र का, यानिमिथुन रा , नगल धनु राशि का, राह तुला राशि का, सूर्य कर्क राशि का स्योर वहस्पात वाराश पर था तब यह उत्तर पुराण पूग हया --यह ग्रन्थ समाप्ति की तिथि नही किन्तु उमा पूजा महात्नव मनाया गय।पा। मम पद्य 'T यः ज्ञात नहीं होता कि गुणभद्राचार्य उस रामय जीवित थे। सभवत. उस समय उनना दव लोकना चका था। उस समय बकापुर अकाल वर्ष का सामन्त लोकादित्य वनवास दस पर शामन कर रहा था, जि. जधानी बकापुर यं। इन। पिता का नाम बकय या बकगज था। उसी के नाम पर उक्त नगर वगाया गया था। इनमा ध्वजा प. चाल का चिन्ह था। इनके पिता और भाई भी चेयजये। लोकगेन ने उन्- जनार्म का न कर पाला मसन यशस्बा बतया है । चक लोक सेन ने अपनी प्रशस्ति शक स. ८० (मन् ८६८) मेखिी है, प्रत उनका समयमा क, नवमी शताब्दी अन्तिम चरण है। श्रीदेव श्री देव कमलभद्र के शिष्य थे। उन्होंने स० ६१६ अाश्विन शुक्ला १८ वृहस्पतिवार के दिन लच्छगिरी (देवगढ) मे स्तम्भ स्थापित किया। देवगढ़ का पुराना नाम लच्छािर है। जैन शिलालेख स० भा०२ पृ० १५० स्यम्भू कवि स्वयम्भ--का जन्म ब्राह्मण कुल में दया , परन नेन धर्म प: ग्रा . जाकार ।, उसकी उस पर पूरी निष्ठा एव भक्ति थी। कवि के पिता का नाम मारत दर पर माता का नाम नमन। या । कविन स्वय १ बग्यान ग मतगजा निजमद मोग्विनी मगमा । गाद्न वारि कलकित वट मुर पीत्वा तृष २६.३०प्र० २. जमालवर्षभूग ने पायापलामिम् ३. सजपनि गुणभद्र. गर्मयोगीन्द्र पास: । वाग'मा म म बा । जिन गदनविलामा दिचलनीत - काग्नुठार सर्वभूपात ।। । १२ ४. शकट। कालापतर्गत्राधिकाटामिनासान मगलमहार्थकारण गिन नार्मा । गम जनगर दे ।।२५ श्री पञ्चम्या वुधार्गयुजि मा मनिचारे नुधागे पूर्वाया मिहलग्न धनुपि स गति य तलावाम् । मूब शुमा कुलीर गांवव गु.] 1 नित भाव । प्राप्नज्य मर्वमार जगात पिम - पुष्पमालगणम् ॥३६ -उ० ४० प्र० ५. देवो, उत्तरपुराण . ० ४, ५ ६ (३२ से ३४) ६. पटमिरणी गव्म सभूग, भारुप दव अणुनये । पउमच० ११०२
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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