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________________ १८२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पाश्र्वाभ्युदय काव्य का उल्लेख शकसं० ७०५ में हरिवंश में पुन्नाट संधी जिनसेनने किया है । और लिखा है कि भगवान पार्श्व नाथ के गुणों की स्तुति उनको कीर्तिका सक र्तन करती है । इससे स्पष्ट है कि जिनसेन ने शक सं० ७०५ से पूर्व ही ग्रन्थ रचना शुरू कर दी थी। अत: उक्त पाश्र्वाभ्यूदय काव्य शक सं.७०० के लगभग की रचना है, क्य शक सं०७०५ में उसका उल्लेख मिलता है। इस रचना के समय जिनसेन की प्राय कम से कम १५ और २० वर्ष के मध्य रही होगी। पाश्र्वाभ्युदय काव्य की रचना से ५६ वर्षबाद उन्होंने जयधवला को शक सं० ७५६ सन् ८३७ में पूर्ण किया है। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि प्राचार्य जिनसेन ने शक सं० ७०० से ७३८ के मध्यवत समय में क्या कार्य किया । इस सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि जब गुरु वीरसेन ने धवला और जयधवला टोका बनाई, तब उसमें उन्होंने अपने गरु को अवश्य सहयोग दिया होगा। और यदि उन्होंने उस काल में अन्य किसी ग्रन्थ की रचना की होती तो वे उसका उल्लेख अवश्य करते । उसके बाद उन्होंने आदि पुराण की रचना को है । और वे महापुराण की रचना करते हुए बीच में ही स्वर्गवासी हो गए । उनके इस अधूरे पुराण को उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने पूर्ण किया है । आदि पुराण के दश हजार श्लोंकी रचना करने में ५.६ वर्ष का समय लग जाना अधिक नहीं है । इससे जिनसेना चार्य दीर्घ जीवी थे। और उनका स्वर्गवास ५० वर्ष की अवस्था में हना होगा। दशरथ गुरु ___ दशरथ गुरु-पंचस्तूपान्वयी वोरमेन के शिष्य थे, और जैन सेनाचार्य के सधर्मा बन्धु–गुरुभाई थे। जो बडे विद्वान थे—जिस तरह सूर्य अपनी निर्मल किरणों से संसार के पदार्था को प्रकाशित करता है। उसी प्रकार वे भी अपने वचन रूपी किरणों से समस्त जगत को प्रकाशमान करते थे। जिनसेनाचार्य का जो समय है, वही दशरथ गुरु का है, जिनसेनाचार्य ने अपनी जयधवला टीका शक सं० ७५६ (सन् ८३७) में पूर्ण की है। अतएव दशरथगुरु का समय भी सन् ८०० से ८३७ होना चाहिये। गुणभद्राचार्य गुण भद्र-मूलसंघ सेनान्वय के विद्वान थे । और पचस्तूपान्वय के विद्वान आचार्य जिनसेन के सधर्मा (गुरुभाई) दशरथ गुरु के शिष्य थे । सिद्धान्त शास्त्र रूपी समुद्र के परिगामी होने से जिनकी बुद्धि अतिशय प्रगल्भ तथा देदीप्यमान (तीक्ष्ण) थी, जो अनेक नय और प्रमाण के ज्ञान में निपुण, अगणित गुणों से विभूषित, समस्त जगत में प्रसिद्ध थे । जो तपोलक्ष्मो से भूषित थे। उत्कृष्ट ज्ञान से युक्त, पक्षोपवासी, तपस्वी तथा भावलिंगी १. यामिताभ्युदये पार्श्व जिनेन्द्रगुण नंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनम्य कति समीर्तयत्वसौ ।।१० -हग्विशपगरण २. दशरथगुरुरामीत्तस्य धीमान्सधर्मा शशिन इव दिनेशो विश्वलोकचक्षः । निखिलमिद मदीपि व्यापितद्वाङ्मयूखैः । प्रकटितनिजभाव निर्मलधर्ममारे : ॥१२ -उत्तर पुगण प्रशस्ति ३. प्रत्यक्षीकृत लक्ष्य लक्षण विधि विश्वोपविद्यां गतः । सिद्धान्ताअबवसानयान जनित प्रागल्म्भा वृद्धीद्धधी; । नानानूननयप्रमाणनिपुणोऽगण्ये गुणभूषित :। शिष्यः श्रीगुणभद्रसूरिरनयोगमीज्जगद्विश्रुतः ।। -उत्त० पु० प्रशस्ति १४
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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