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________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य १८१ चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे शक संवत ७५६ में पूरा किया। यह टीका वीरसेन स्वामी की शैली में मणि-प्रवाल (सस्कृत मिथित प्राकृत) भाषा में लिखी गई है । टीका की भाषा प्रावाहपूर्ण है। टीकाकार ने स्वयं ही शंकाएं उठा कर विविध विपयो का स्पष्टीकरण किया है। प्राचार्य जिनसेन ने कसाय प्राभत की जयधवला टीका में चणिमूत्र और उच्चारणा आदि के द्वारा वस्तु तत्त्व का यथार्थ विवेचन किया है । कपाय के उपशम और क्षपणा का सुन्दर, सरस एव हृदयग्राही विवेचन किया गया है। मोह के दर्शन मोहनीय और चरित्र मोहनीय रूप दो भेद है । उनपे दर्शन माहनीयके भेद राग, द्वेष मोहरूप त्रिपटि का तथा चारित्र मोहनीय के मूलतः कपाय अोर नो कषायों में विभाजन किया है। ये कषाये राग-द्वेष में विभाजित होकर एक मोह कर्म की राग-द्वेष मोहरूप त्रिरूपताका बोध कराती हैं । प्रात्मा इन सबकी शक्ति को उपशमाने या क्षीण करने का उपक्रम करता है । उन की शक्ति का निर्बल करने के लिये ध्यानादि का अनुष्ठान करता है। और ग्रन्थ में कषायों के रस को सुखाने, निर्जीर्ण करने आदि का विस्तृत कथन दिया है। जिसका परिणाम घाति कर्म क्षय रूप कैवल्य की प्राप्ति है। उसमे आत्मा कर्म के मोहजन्य सम्कार के प्रभाव से हलका हो जाता है। पश्चात वह योग निरोधादि द्वारा अघाति रूप कर्म-कालिमा का अन्त कर स्वात्म लब्धि का पथिक बन जाता है। प्रोर जन्म मरणादि से रहित अनन्तकाल तक आत्म-सुख में निमग्न रहता है। यह टीका प्रमेय बहुल और सैद्धान्तिक चर्चा से प्रोत-प्रोत है । इसका अध्ययन और मनन करना श्रेयरकर है। इस सब विवेचन पर मे जयधवला टीका की महत्ता का बोध सहज ही हो जाता है, और उसमे जिनसेनाचार्य की प्रज्ञा एवं प्रतिभा का अच्छा प्राभास मिल जाता है। आचार्य जिनमेन ने जयधवला टीका में श्रीपाल. पदान और देवमेन नामके तीन विद्वानों का उल्लेख किया है । संभवतः ये उनके सधर्मा या गुरु भाई थे। श्रीपाल को तो उन्होंने जयधवला का संपालक कहा है। समय जिनसेन अपनी अविद्धकर्ण बाल्य अवस्था में ही वीर सेन के चरणों में आ गए थे। वीरसेन ही उनके विद्या गुरु और दीक्षा गुरु थे। उन्ही की शिक्षा द्वारा तपस्वी और विद्वान आचार्य बने । उन्ही के पादमूल में उनके जीवन का अधिकाश भाग व्यतीन हपा है । इमी से उन्होंने अपने गुरु का बहुत ही आदरपूर्ण शब्दों में स्मरण किया है। वीर सेन ने अपनी धवला टोका शक स० ७३८ सन् ८१६ में समाप्त को है। पीर जय धवला टीका की समाप्ति उसमे २१ वर्ष बाद शक सवत ७५६ (सन् ८३७) में गर्जग्नरेन्द्र अमोघवर्ष के राज्य काल में वाट ग्राम हुई है । च कि १. प्रायः प्राकृत भारत्या क्वचित्संस्कृमिथया। मणि-प्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयंग्रन्थ विम्नरः ॥३२ -(जधवला प्रान) २. ते नित्योज्वलपदमसेनगरमा: श्रीदेवमेनाचिताः । भासन्ते रविचन्द्रभासि मुतपा श्रीपाल मत्कीर्तयः ॥३६ -जय धवला प्रगति । ३. इतिश्री वीर सेनीया टोका सूत्रार्थ-दशिनी। वाट ग्राम पुरे श्रीमद् गुर्जरार्यानुपालिते ।। ६ फाल्गुणे मासि पूर्वान्हे दशम्या शुक्लपक्षक । प्रवर्धमान-पूजोरु-नन्दीश्वर- महोत्सवे ॥७ अमोघवर्ष राजेन्द्र-राज्य प्राज्य गुणोदया। निष्ठिना प्रचय यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥८-(जयधवला प्रशरित)।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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