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________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य १७६ रिक दुर्बलता सच्ची कृशता नहीं है, जो गुणों से कृश होता है वास्तव में वही कृश है, जिन्होंने न तो कापालिका (सांख्य शास्त्र और पक्ष में तैरने का घड़ा) को ग्रहण किया और न अधिक चिन्तन किया, फिर भी अध्यात्म विद्या रूप सागर के पार पहंच गये। वे बड़े साहसी, गुरु भक्त और विनयी थे। और बाल्यावस्था से ही जीवन पर्यन्त प्रखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत के धारक थे । वे न तो अधिक सुन्दर थे, और न बहत चतूर, फिर भी अनन्य शरण होकर सरस्वती ने उनकी सेवा की थी । स्वाभाविक मद्ता और सिद्धान्त मर्मज्ञता गुण उनके जीवन सहचर थे। उनकी गंभीर और भावपूर्ण सूक्तियां बड़ी ही सुन्दर और रसोली हैं। कविता सरस और अलंकारों के विचित्र आभषणों से अलंकृत है। वाल्यावस्था से ही उन्होन ज्ञान की सतत आराधना में जीवन बिताया था। सैद्धान्तिक रहस्यों के मर्मज्ञ तो वे थे ही, किन्तु उनका निर्मल यश लोक में सर्वत्र विश्रुत था। वे उच्कोटि के कवि थे, कविता रसीली और मधुर थी। आपकी इस समय तीन कृतियां उपलब्ध हैं । पाश्र्वाभ्युदयकाव्य, आदि पुराण और जयधवला टीका, जिसे उन्होंने अपने गुरु वीरसेनाचार्य के स्वर्गवास के बाद बना कर पूर्ण की थी। पाश्र्वाभ्युदय काव्य-यह अपने टग का एक ही अद्वितीय समस्या पूर्तिक खण्ड काव्य है । दीक्षा धारण करने के पश्चात् भगवान पार्श्वनाथ प्रतिमायोग में विराजमान हैं पूर्व भव का वेरी कमठ का जीव शंवर नामक ज्योतिष्कदेव अवधि ज्ञान से अपने शत्रु का परिज्ञान कर नाना प्रकार के उपसर्ग करता है । परन्तु पार्श्वनाथ अपने ध्यान से रंचमात्र भी विचलित नहीं होते। उनके घोर उपसर्ग को दूर करने के लिये धरणेन्द्र और पद्मावती पाते हैं। शम्बर भय-भीत हो भागने की चेष्टा करता है किन्तु धरणेन्द्र उसे रोकते हैं और उसके पूर्व कृत्यों को याद दिलाते हैं। उपसर्ग दूर होते ही भगवान पार्श्वनाथ को केवलज्ञान हो जाता है। इन्द्रादिक देव केवलज्ञान की पूजा करते हैं। शंवरपाश्वनाथ के धर्य, साजन्य, सहिष्णुता, और अपार शक्ति से प्रभावित होकर स्वयं वैर भाव का परित्याग कर उनकी शरण में पहुंचता है और पश्चाताप करता हुआ अपने अपराध को क्षमा याचना करता है, वह जिनधर्म ग्रहण करता है, देव पुष्पवृष्टि करते हैं, कवि ने काव्य में 'पापापाये प्रथम मुदितं कारणं भक्तिरेव' जैसी सूक्तियों की भी संयोजना की है । इसीसे कथावस्तु को अभिव्यंजना पाश्र्वाभ्युदय में की गई है । शृंगार रस से प्रोत-प्रोत मेघदूत को शान्त रस में परिवर्तित कर दिया है । साहित्यिक दृष्टि से यह काव्य बहुत ही सुन्दर और काव्य गुणों से मंडित है । इसमें चार सर्ग हैं। उनमें से प्रथम सर्ग में ११८ पद्य, दूसरे में भी ११८, तीसरे में ५७, और चीथे में ७१ पद्य हैं। काव्य में कुल मिलाकर ३६४ मन्दाक्रान्ता पद्य हैं। काव्य में (कमठ) यक्ष के रूप में कल्पित है। कविता अत्यन्त प्रौढ और चमत्कार पूर्ण है। मेघदूत के अन्तिम चरण को लेकर तो अनेक काव्य लिखे गये। परन्त सारे मेघदूत को वेष्टित करने वाला यह एक ही काव्य ग्रन्थ है। इस काव्य की महत्ता उस समय और अधिक बढ़ जाती है जब पार्श्वनाथ चरित की कथा और मेघदूत के विरही यक्ष को कथा में परस्पर में भारी असमानता है। ऐसी कठिनाई होते हए भी काव्य सरस और सुन्दर बन पड़ा है। इस काव्य की रचना जिनसेन ने अपने सधर्मा गरू भाई विनयसेन की प्रेरणा से की थी। १. यः कृशोपिशरीरेण न कृशोभूतपोगुणः । न कृशत्व हि शारीरं गुणैरेव कृशः कृशः ॥२७ यो न गृहीत्कापलिकान्नाप्यचिन्तयदंजसा । तथाप्यध्यात्मविद्याब्धेः पारं पारमशिश्रियत् ॥२८ -जयधव० प्रश० २. यो नाति सुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः। तथाप्यनन्य शरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ॥२५-जयध० न० ३. श्री वीरसेन मुनिपादपयोजनभृग, श्रीमानभूद्विनयसेन मुनिगरीयान् । तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण, काव्यं व्यधायि परिवेष्टित मेघदूतम् ।। -पार्वाभ्युदय
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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