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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ १७८ के समय (शक सं० ७०५ में) तो ( उत्तर दिशा का) मारवाड़ इन्द्रायुध के प्राधीन था और ( पूर्वका ) मालवा वत्सराज के अधिकार में था । परन्तु इसके ५ वर्ष पहले (शक सं० ७००) में वत्सराज मारवाड़ का अधिकारी था इससे अनुमान होता है कि उसने मारवाड़ से ही आकर मालवा पर अधिकार किया होगा और उसके बाद ध्रुवराज की चढ़ाई होने पर वह फिर मारवाड़ की ओर भाग गया होगा । शक सं० ७०५ में वह प्रवन्ति या मालवा का शासक होगा । अवन्ति बढ़वाण की पूर्व दिशा में है ही । परन्तु यह पता नहीं लगता कि उस समय श्रवन्ति का राजा कौन था, जिसकी सहायता के लिए राष्ट्रकूट ध्रुवराज दौड़ा था । ध्रुवराज (श० सं० ७०७ ) के लग-भग गद्दी पर आरूढ़ हुआ था । इन सब बातों से हरिवंश की रचना के समय उत्तर में इन्द्रायुध, दक्षिण में श्री वल्लभ और पूर्व में वत्सराज का राज्य होना ठीक मालूम होता है । वीर जयवराह यह पश्चिम में सौरों के अधिमण्डल का राजा था। सौरों के अधिमण्डल का अर्थ हम सौराष्ट्र ही समझते हैं जो काठियावाड़ के दक्षिण में है । सौर लोगों का सोसौर राष्ट्र या सौराष्ट्र । सौ राष्ट्र से बढ़वाण और उसने पश्चिम की ओर का प्रदेश ही ग्रन्थकर्ता को अभीष्ट है यह राजा किस वंश का था, इसका ठीक पता नहीं चलता । प्रेमीजीका अनुमान है कि यह चालुक्य वंश का कोई राजा होगा और उसके नाम के साथ वराह शब्द का प्रयोग उसी तरह होता होगा, जिस तरह कि कीर्ति वर्मा (द्वितीय) के साथ 'महावराह' का, राष्ट्रकूटों से पहले चौलुक्य सार्वभौम राजा थे । और काठियावाड़ पर भी उनका अधिकार था। उनसे यह सार्वभौमत्व शक सं० ६७५ के लगभग राष्ट्रकूटों ने ही छीन लिया था । इसलिए बहुत संभव है कि हरिवंश की रचना के समय सौराष्ट्र पर चौलुक्य वंश की किसी शाखा का अधिकार हो और उसी को जयवराह लिखा हो । संभवतः पूरा नाम जयसिंह हो और वराह विशेषण | प्रतिहार राजा महीपाल के समय का एक दान पत्र हड्डाला गांव ( काठियावाड़) से शक सं० ८३६ का मिला है। उससे मालूम होता है कि उस समय बढ़वाण में धरणी वराह का अधिकार था, जो चावड़ा वंश का था और प्रतिहारों का करद राजा था। इससे एक संभावना यह भी हो सकती है कि उक्त धरणी वराह का ही कोई ४-६ पीढ़ी पहले का पूर्वज उक्त जयवराह हो । प्राचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण की रचना शक सं० ७०५ ( वि० सं० ८४० ) में की है। उसके बाद कितने वर्ष तक वे अपने जीवन से इस भूतल को अलंकृत करते रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं होता । जिनसेनाचार्य पंचस्तूपान्वयी वीरसेन के प्रमुख शिष्य थे। जिनसेन विशाल बुद्धि के धारक कवि, विद्वान और वाग्मी थे । इसी से आचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि जिस प्रकार हिमाचल से गंगा का सकलज्ञ से ( सर्वज्ञ से) दिव्य ध्वनि का और उदयाचल से भास्कर का उदय होता है उसी प्रकार वीरसेन से जिनसेन उदय को प्राप्त हुए हैं जिनसेन वीरसेन के वास्तविक उत्तराधिकारी थे। जय धवला प्रशस्ति में उन्होंने अपना परिचय बड़े ही सुन्दर ढंग से दिया है। प्रोर लिखा है कि- 'वे प्रविद्धकर्ण थे- कर्णवेध संस्कार से पहले ही वे दीक्षित हो गए । मौर बाद में उनका कर्णवेध संस्कार ज्ञान शलाका से हुआ था । वे शरीर से दुबले पतले थे, परन्तु तप गुण से कृश नहीं थे । शारी वे 1 १. अभवदिवहिमाद्र देवसिन्धु प्रवाहो, ध्वनिरिव सकलज्ञात्सर्वशास्त्रकमूर्तिः । उदयगिरि तटाद्वा भास्करो भासमानो, मुनिरनुजिनसेना वीरसेनादमुष्यात् ॥ २. तस्य शिष्योभवच्छ्रीमान जिनसेनः समिद्धधीः । afaaraft यत्कर्णो विद्धो ज्ञानशलाकया ।। २२ - जयधव० प्र० - उत्तर पुराण प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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