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________________ १० मान-अपमान में समान बने रहते हैं, वही सच्चे श्रमण हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जो श्रमण शत्रु और बन्धु वर्ग में समान वृत्ति हैं। सुख-दुख में समान हैं लोह और कंचन में समान है जीवन-मरण में समान है, वे श्रमण हैं : समसत्तु बंधु वग्गो समसुह दुक्खो पसस - णिदं समो । समलोट्ठ कंचणो पुण जीविय मरणे समो समणो ॥ जो पांच समितियों, तीन गुप्तियों तथा पांच इन्द्रियों का निग्रह करने वाला है, कपात्रों को जीतने वाला है, दर्शन, ज्ञान, चरित्र सहित है वही श्रमण संयत कहलाता है । - पंच समिदो तिगुत्तो पचेदिय संबुडो जिदकसाम्रो । दंसणाणाण समग्गो समणो सो संजदो भणिदो || स्थानाङ्ग सूत्र ( ५ ) की निम्न गाथा श्रमण के व्यक्तित्व और उनकी जीवन वृत्ति पर अच्छा प्रकाश डात है । उरग - गिरि-जल-सागर णहतल - तरुगणसमोन जो होइ । भमर-निय धरणि जलरह-रवि-पण मोश्रो समणो ॥ जो उरग सम (सर्प के समान) परकृन गुफा मठादि में निवास करने वाला, गिरिसम- पर्वत के समान अचल, ज्वलनसम—अग्नि के समान तृप्त अग्नि जम तृणा न अतृप्त रहता है, उसी तरह तप तेज संयुक्त श्रमण सूत्रार्थ चिन्तन में अतृप्त रहता है। भागरसम-समुद्र के समान गभीर, आकाश के समान निरालम्ब, भ्रमर के समान अनियत वृत्ति, मृग के समान गमार के दुखों से उद्वग्न, पृथ्वी के समान क्षमाशील, कमल के समान देह भोगों में निर्लिप्त, सूर्य के समान बिना किसी भेद भाव के ज्ञान के प्रकाशक और पवन के समान अवरुद्ध गति, श्रमण ही लोक में प्रतिष्ठित होते है । ऊपर जिन श्रमणों का स्वरूप दिया गया है वे हो सच्चे श्रमण है । अनियोग द्वार श्रमण पाँच प्रकार के बतलाये गये है, निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गेरुय प्रार प्राजीवक । इनमें अन्तवाह्यं ग्रन्थियों को दूर करने वाले विपयाशा से रहित, जिन शासन के अनुयायी मुनि निर्ग्रन्थ कहे जाते है । मुगत (बुद्ध) के शिष्य सुगत या शाक्य कहे जाते है, जो जटाधारी हैं, वन में निवास करते हैं वे तापसी है, रक्तादि वस्त्रों के धारक दण्डी कहलाते हैं। जो गोशालक के मत का अनुसरण करते हैं वे प्राजीवक कहे जाते है'। इन श्रमणों में निर्ग्रन्थ श्रमणों का दर्जा सबसे और विवेक का अनुसरण करते हैं। ऐसे सच्चे श्रमण ही प्रतिष्ठापक आदि ब्रह्मा ऋषभदेव है जो नाभिराय और भरत के नाम से इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा है। ( ' णमो पण्ह समणाणं' ) । जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ १. निग्गय सवक तावम गेरू ग्राजीव चहा समरगा । तम्मिय निगथा ते जे जिरा सासराभवा मुरिणो । सक्काय सुगय मिस्सा जे जडिला नेउ तावसा भग्गिया । जे गोसाल गमय मणु जे धाउरतवत्था निदण्डिगो गरुया तेरा || मति यन्नति तेउ आजीवा ऊंचा है, उनका त्याग और तपस्या कठोर होती है, वे ज्ञान श्रमण संस्कृति के प्रतीक है। इस श्रमण संस्कृति के आद्य मरुदेवी के पुत्र थे, और जिनके शत पुत्रा में से ज्येष्ठ पुत्र महां बन्ध में प्रज्ञा श्रमणों को नमस्कार किया गया है । - ( अनुयोगद्वार अ १२० २. नाभेः पुनश्च ऋषभः ऋपभद् भरतोऽभवत् । तस्य नाम्नः त्विदं वर्ष भारतं चेति कीत्यंते ॥ अग्नी सूनो नाभेस्तु ऋषभोऽभूतसुनो द्विजः । ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्र शताद्वरः ।। येषा खलु महायोगी भरतो ज्येष्ट श्रेष्ठ गुण आसीत । येनेद वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ।। (विष्णुपुराण अ० १ भागवत ५-६ में
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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