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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य १६१ अर्ककीर्ति को शक सं०७३५ (सन् ८१३) में जेठ महीने के शक्ल पक्ष की दशमी चन्द्रवार के दिन शिलाग्राम के जिनेन्द्र भवन को जाल मंगल नाम का गांव उक्त अर्ककीति को दान में दिया गया था। अतः विजयकीति का समय ईसा की ८वीं शताब्दी है। (जैन लेख सं० भा०२ पृ० १३७) विमलचंद्राचार्य मूलसंघ के नन्दिसंघान्वय में एरेगित्तू नामक गण में और पुलिकल गच्छ में चन्द्रनन्दि गुरु हुए। इनके शिष्य मुनि कुमारनन्दि थे, जो विद्वानों में अग्रणी थे। इन कुमारनन्दि के शिष्य जिनवाणी द्वारा अपनी कोति को अर्जन करने वाले कीर्तिनन्द्याचार्य हुए। कीर्तिनन्द्याचार्य के प्रिय शिष्य विमल चन्द्राचार्य हुए। जो शिष्यजनों के मिथ्याज्ञानान्धकार के विनाश करने के लिए सूर्य के समान थे। महर्षि विमलचन्द्र के धर्मोपदेश से निर्गुन्द्र युवराज जिनका पहला लाम 'दुण्डु' था और जो बाणकुलके नाशक थे। इनके पुत्र पृथिवी निर्गुन्द्रराज हए । इनका पहला नाम परभगूल था इनकी पत्नी का नाम कुन्दाच्चि था। जो सगर कुलतिलक मरुवर्मा की पुत्री थी, और इनकी माता पल्लवाधिराज की प्रिय पुत्री थी जो मरुवर्मा की पत्नी थी । कुन्दाच्चि ने श्रीपुर की उत्तर दिशा में लोकतिलक नाम का जिनमन्दिर बनवाया था। उसकी मरमत नई वृद्धि, देवपूजा और दान धर्म आदि की प्रवत्ति के लिये पृथिवी निर्गुन्द्रराज के कहने से महाराजाधिराज परमेश्वर श्री जसहितदेव ने निर्गुन्द्र देश में आने वाले पोन्नल्लि ग्राम का दान सब करों और बाधाओं से मुक्त करके दिया । लेख में इस गांव की सीमा दी हुई है। चूंकि यह लेख शक सं०६९८ सन् ७७६ ई० में उत्कीर्ण किया गया था। अतः विमल चन्द्राचार्य का समय ७७६ ईस्वी है। (जैन लेख संग्रह भा० २ पृ० १०६) इस लेख में विमल चन्द्राचार्य की गुरु परम्परा का उल्लेख दिया हुआ है । जिनके नाम ऊपर दिये हुए हैं । कोतिनन्दि-यह विमल चन्द्राचार्य के गुरु थे। इनका समय उक्त लेखानुसार सन् ७५६ होना चाहिए। विशेषवादि यह अपने समय के विशिष्ट विद्वान थे। इसी से जिनसेन और वादिराज ने उनका स्मरण किया है। पुन्नाटसंघी जिनसेन ने हरिवंशपुराण में उनका स्मरण निम्न रूप में किया है : योऽशेषोक्ति विशेषेषु विशेषः पद्यगद्ययोः । विशेषवादिता तस्य विशेषत्रयवादिनः॥३७ जो गद्य पद्य सम्बन्धी समस्त विशिष्ट उक्तियों के विषय में विशेष-तिलकरूप हैं, तथा जो विशेषत्रय (ग्रंथ विशेष) का निरूपण करने वाले हैं। ऐसे विशेषवादी कवि का विशेष वादीपना सर्वत्र प्रसिद्ध है। शाकटायन ने अपने एक सूत्र में कहा है कि-'उप विशेषवादिनं कवयः । (१३१०४) सारे कवि विशेष वादि से नीचे हैं। प्राचार्यवादिराज ने भी पार्श्वनाथचरित में उनके 'विशेषाभ्युदय' काव्य की प्रशंसा की है १ जो गद्य पद्य मय महाकाव्य के रूप में प्रसिद्ध होगा । शाकटायन यापनीय संघ के विद्वान थे प्रेमीजी ने विशेषवादी को यापनीय लिखा है । इनका समय शक सं० ७०५ (वी० सं० ८४०) सन् ७८३से पूर्ववर्ती है । संभवत: विशेषवादी पाठवीं शताब्दी के विद्वान हों। १. विशेष वादिगीगुम्फश्रवणासवतबुद्धयः । अक्लेशादधि गच्छन्ति विशेषाभ्युदयं बुधाः ।। -वादिराज पार्श्वनाथ चरित
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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