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________________ १५२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पुद्गल द्रव्य-रूप-रस, गन्ध और स्पर्श वाले परमाणु पुद्गल द्रव्य है । वे अनन्त हैं । पुद्गल परमाणु जब स्कन्ध बनते है तब उनका रासायनिक बन्ध हो जाता है। उस स्कन्ध में जितने पूदगल परमाण सम्बद्ध हैं उन सबका एक जैसा परिणमन हो जाता है। प्रोर उसी परिणमन के अनुसार स्कन्ध में रूप विशेष और रस विशेष का व्यवहार होता है । समस्त जगत इन्ही पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हुआ । प्रति समय कोई न कोई परिणमन करने का उनका स्वभाव है । पुद्गल शब्द का अर्थ ही पूरण और गलन है। धर्म द्रव्य-यह एक लोकव्यापी अमूर्त द्रव्य है जो गमनशील जीव और पुद्गलों की गति में सहायक होता है । यह प्रेरक निमित्त नहीं किन्तु उदासीन निमित्त है। अधर्म द्रव्य-यह एक लोक व्यापी अमूर्त द्रव्य है जो स्थितिशील जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक होता है । यह भी उदासीन निमित्त है। प्राकाश द्रव्य-यह एक अनन्त अमूर्त द्रव्य है, जिसमें समस्त द्रव्यों का प्रवगाह होता है। द्रव्यों के प्रवस्थान की अपेक्षा इसके दो भेद है । जहाँ तक जीवादिक पाये जाये वह लोकाकाश है और जहां केवल आकाश ही प्राकाश है वह प्रालोकाकाश है।। काल द्रब्य-लोकाकाश व्यापी असंख्य कालाण द्रव्य है, जो स्वयं तो परिणमन करते ही हैं किन्तु अन्य द्रव्यों के परिणमन में भी निमित्त होते हैं। घड़ी, घण्टा दिन आदि काल व्यवहार इन्हीं के निमित्त से होता है। जीव द्रव्य-उपयोग रूप है, अमूर्त है, कर्ता है, और भोक्ता है, स्वदेह परिमाण है समारी पोर मिद्धि हो जाता है। स्वभाव से ऊर्ध्वगमनशील है। जीव का स्वभाव चैतन्य है, वही चैतन्य ज्ञान प्रोर दर्गन अवस्थाओं में परिणत होता है । जीव को सभी जीववादी अमूर्त मानते है । जीव के दो भेद है ससारी ओर मुक्त । किन्तु जैन परम्परा में संसारी रावस्था में सदा कर्म पुद्गलों से बधे रहने के कारण उसे व्यवहार दृष्टि से मूर्त माना जाता है। संसारी अवस्था में जब उसकी वैभाविक शक्ति का विकार परिणमन होता है तब आत्मा को कथंचित मूर्त भी माना गया है । उसे स्वयं कर्ता और भोक्ता भी माना है। जे व अनादि काल से कर्म पुद्गलों से बद्ध चला आ रहा है । इसी कारण वह कथचित् मूर्त है । और कर्मानुमार प्राप्त छोटे-बड़े शरीर के अनुसार संकोच और विकास करके उस शरीर के प्रमाण आकार वाला होता है । वह स्वभावतः अमूर्त द्रव्य है और पुद्गल मे भिन्न है। और वासनाओं के कारण संसार अवस्था में विकृत हो रहा है। अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र प्रादि प्रयत्नों से धीरेधीरे शूद्ध होकर कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। उस समय उसका आकार अन्तिम शरीर जेसा ही रह जाता है; क्योकि जीव के प्रदेशों में सकोच और विकास दोनों ही कम के सम्बन्ध से होते थे। जब कर्मबन्धन छट गया तब जीव के प्रदेशो के फैलने का कोई कारण नही रहता । अत: वह अन्तिम शरीर से कुछ न्यून आकारवाला रह जाता है। नय मीमांसा-में नय के स्वरूप का कथन करते हए, उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा की गई है। अनेकान्तात्मक वस्तु के एक-एक अंश को विषम करने वाले अभिप्राय विशेष प्रमाण को सन्तान हैं, उनमें यदि पर अपेक्षा है तो वे सुनय है । अन्यथा दुर्नय । अनेकात्मक वस्तु के अमुक अश को मुख्य भाव से ग्रहण करके भो अन्य अंशों का निराकरण नहीं करता किन्तु उसके प्रति तटस्थभाव रखता है। जैसे पिता की सम्पत्ति में उसके सभी पुत्रों का समान हक होता है । सपूत वही कहा जाता है, जो अपने भाइयों के हक को ईमानदारी से स्वीकार करता हड़पने की चेष्टा नही करता। किन्तु उनके साथ सद्भाव रखता है। उसी तरह अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सभी नयों का समान अधिकार है, उनमें सुनय वही कहा जायेगा, जो अपने अंश को मुख्य रूप से ग्रहण करके भी अन्य के अशों का गौण करे, पर उनका निराकरण न करे, उनकी अपेक्षा को ओर उनके अस्तित्व को स्वीकार करता है। किन्तु जो दूसरे का निराकरण करता है, और अपना ही अधिकार जमाता है वह कूपूत की तरह दुर्नय कहलाता है । इसी से प्राचार्य समन्तभद्र ने निरपेक्ष नय को मिथ्या और सापेक्ष नय को सम्यक बतलायाया है। १. निरपेक्ष, नयामिथ्या मापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत्। आप्तमीमांसा श्लोक १८
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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