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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवी शताब्दी तक के आचार्य १५१ का अन्तर्भाव, कारण पूर्वचर और उत्तरचर हेतुप्रों का समर्थन, अदृश्यानुपलब्धि से भी प्रभाव को सिद्धि और विकल्प बुद्धि की वास्तविकता प्रादि परोक्ष प्रमाण सम्बन्धी विषयों की चर्चा है। चौथे परिच्छेद में ज्ञान की ऐकान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणता का निषेध करके प्रमाणाभास का स्वरूप, श्रत की प्रमाणता, और पागम प्रमाण आदि विषयों का विचार किया गया है। पांचवें परिच्छेद में नय दुर्नय के लक्षण, नयों के द्रव्याथिक पर्यायाथिक आदि भेद, और नगमादि नयों में अर्थनय शब्दनय प्रादि के विभाग का विवेचन है। छठे परिच्छेद में प्रमाण और नय का विचार करते हए अर्थ और आलोक की ज्ञान कारणता का खंडन तथा सकलादेश विकलादेश का विचार और प्रमाण नयादि का निरूपण किया गया है। इस तरह यह ग्रन्थ अकलंक देव की पहली मौलिक दार्शनिक कृति है। न्यायविनिश्चय सवृत्ति प्रस्तुत ग्रन्थ में ४८० श्लोक हैं । और तीन परिच्छेद है- प्रत्यक्ष, अनुमान, और प्रवचन । सम्भव है, अकलंक देव ने इस पर भी कोई चूणि या वृति लिखी होगी । डा. महेन्द्र कुमार जी ने उसके प्राप्त करने का प्रयत्न किया था, किन्तु खेद है कि वह उपलब्ध नहीं हुई । प्रथम परिच्छेद में प्रत्यक्ष का लक्षण लिख कर प्रत्यक्ष के दो भेद इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के लक्षणादि का विवेचन किया गया है। धर्मकीति सम्मत प्रत्यक्ष लक्षण की समालोचना, तथा बौद्धकल्पित स्वसवेदनयोगि मानस प्रत्यक्ष का निराकरण करते हए सांख्य और नैयायिक सम्मत प्रत्यक्ष लक्षण का निराकरण किया गया है। दूसरे परिच्छेद में अनुमान का लक्षण, साध्य-साध्याभास और साधन साधनाभास के लक्षण, हेतु के रूप्य का खंडन करते हुए अन्यथानुपपत्ति का समर्थन, प्रसिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चितकर हेत्वाभासों आदि का विवेचन किया गया है। और अनुमान से सम्बन्धित विषयों का कथन किया गया है। तीसरे प्रवचन प्रस्ताव में प्रवचन का स्वरूप, सुगत के प्राप्तत्व का निराकरण, सुगत के करुणावत्व तथा चतुरार्थ प्रतिपादकत्व का परिहास, पागम के अपौरुषेयत्व का खण्डन, सर्वज्ञत्व समर्थन, मोक्ष और सतभंगी का निरूपण, स्याद्वाद में दिये जाने वाले संशयादि दोषों का परिहार, स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि का प्रामाण्य और प्रमाण के फलादि विषयों का कथन किया गया है। इस ग्रन्थ पर प्राचार्य वादिराज का विस्तत विवरण उपलब्ध है, जो न्याय विनिश्चय विवरण के नाम से प्रसिद्ध है, और जो भारतीय ज्ञानपीठ काशी से दो भागों में प्रकाशित हो चुका है। वादिराज ने उसके रचना काल का उल्लेख नहीं किया। वादिराज का परिचय अन्यत्र दिया है। उनका समय शक सं० ६४७ (सन् १०२५) है। सिद्धिविनिश्चय-अकलंकदेव की यह महत्वपूर्ण कृति है। इसमें १२ प्रस्ताव हैं जिनमें प्रमाणनय और निक्षेप का विवेचन किया गया है। उनके नाम इस प्रकार हैं-१. प्रत्यक्षसिद्धि (२) सविकल्पसिद्धि (३) प्रमाणान्तर सिद्धि (४) जीवसिद्धि (५) जल्पसिद्धि (६) हेतुलक्षण सिद्धि (७) शास्त्रसिद्धि (८) सर्वज्ञसिद्धि (8) शब्दसिद्धि (१०) अर्थनयसिद्धि (११) शब्दनयसिद्धि (१२) और निक्षेपसिद्धि । इन प्रस्तावों के नामों से उनके विषयों का परिज्ञान हो जाता है। डा. महेन्द्र कुमार जी ने क्रमिक विकास की दृष्टि से इन्हें चार विभागों में बांटा है(१) प्रमाण मीमांसा, (२) प्रमेय मीमांसा, (३) नय मीमांसा और (४) निक्षेप मीमांसा । प्रमाण मीमांसा-इसमें प्रमाण और उसके भेद-प्रभेदों का तथा प्रत्यक्ष सिद्धि, सविकल्प सिद्धि, सर्वज्ञसिद्धि प्रमाणान्तर सिद्धि, और हेतु लक्षण सिद्धि, इनमें प्रतिपादित प्रमाण सम्बन्धी विषयों का सार दिया गया है। और दर्शनान्तरीय ग्रन्थों में माने जाने वाले प्रमाण की मीमांसा की गई है। प्रमेय मीमांसा-इसमें जीवसिद्धि और शब्द सिद्धि में प्रतिपादित प्रमेय सम्बन्धी सामान्य स्वरूप का कथन किया गया है । जैन परम्परा में प्रमेय-द्रव्यों के दो भेद हैं--चेतनद्रव्य और अचेतन द्रव्य । चेतनद्रव्य आत्मा या जीव है उसका लक्षण ज्ञाता दृष्टा है । पौर प्रचेतन द्रव्य पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से पांचप्रकार के हैं ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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