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________________ १४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सेन विद्यानन्द से भी पूर्ववर्ती हैं । संभवतः उनका कोई दार्शनिक ग्रंथ रहा है जिसकी उक्तियों से उन्होंने उक्त ग्रंथ को वर्धमान बतलाया है। मल्लिषेण प्रशस्ति में अकलंक से पहले और सुमति देव के बाद कुमार सेन का उल्लेख किया गया है उदेत्य सम्यग्दिशि दक्षिणस्यां कुमारसेनो मनिरस्तमापत् । तत्रैव चित्र जगदेकभानोंस्तिष्ठत्यसो तस्य तथा प्रकाशः॥१४॥ डा० महेन्द्र कुमार जी ने कुमार सेन का समय ई० ७२०-से ८०० तक बतलाया है। चूंकि कुमारसेन का स्मरण पुन्नाट संघीय जिनसेन ने किया है जिनका समय शक सं० ७०५ ई० सन् ७८३ है। इससे कुमारसेन सन् ७८३ से पूर्ववर्ती हैं। कवि परमेश्वर (कवि परमेष्ठी) प्राचार्य जिन मेन ने इन्हें (कवि परमेश्वर को) कवियों द्वारा पूज्य तथा कवि परमेश्वर प्रकट करते हुए उन्हें शब्द और अर्थ के संग्रह रूप (वागर्थसंग्रह) पुराण का कर्ता बतलाया है। और जिनसेन के शिष्य गणभद्र ने उक्त वागर्थसंग्रह पुराण को गद्यकथामात्र, सभी छन्द और अलंकार का लक्ष्य, सूक्ष्म अर्थ और गढ़ पद रचना वाला बतलाया है । चामुण्डराय ने अपने पुराण में कवि परमेश्वर के अनेक पद्य उद्धत किये हैं जिससे डा० ए. ध्ये म. ए. डीलिट कोल्हापूर ने उसे गद्य-पद्यमय चम्प हान का अनुमान किया है । यह अनुमान प्रायः ठीक जान पड़ता है। जिनसेन और गुणभद्र ने उसका प्राथय जरूर लिया होगा। कवि परमेश्वर का मादि पंप. अभिनव पंप, नयसेन, अग्गल देव और कमलभव आदि अनेक विद्वानों ने आदर के साथ स्मरण किया है, जिससे वे बड़े विद्वान जान पड़ते हैं । परन्तु उनकी गुरु परम्परा ओर गण-गच्छादि का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ । इस निश्चित समय बतलाना शक्य नहीं है, किन्तु इतना अवश्य है कि वे आदि पुराणकार जिनसेन से पूर्ववर्ती हैं। संभवत: उनका समय वि०की ८वीं शताब्दी जान पड़ता है। काणभिक्षु काभिक्ष-कथालंकारात्मक ग्रन्थ के रचयिता थे। प्राचार्य जिनसेन ने इनके ग्रन्थ का उल्लेख करते हए लिखा है कि-धर्मरूप मूत्र में पिरोये हुए जिनके मनोहर वचन रूप निर्मल मणि कथा शास्त्र के अलकार बन गये। उन काणभिक्षु की जय हो। "धमंसूत्रानुगा हृद्या यस्य वाड.मणयोऽमलाः। कथालंकारतां भेजुः काणभिक्ष जयत्यसौ ।।" (प्रादि पुराण १-५-५१) १. स पूज्यः कविभिलौके कवीना परमेश्वरः। वागर्थमंग्रह कृत्स्नं पुराणं यः समग्रहीत् ।।आदि पु० १,६० २. कविपरमेश्वर निदिन गद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम् । सकलच्छन्दोलंकृति लक्ष्यं सूक्ष्मार्थगूढ पद रचनम् ।। -उत्तर पुराण प्रश० १७१ ३. देखो, जैनसिद्धान्त भास्कर भा. १३ किरण २
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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