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________________ पाचवी शताब्दी म आठवी शताब्दी तक के आचार्य १४१ ये सुमति और सन्मति एक ही है। वादिराज ने 'सन्मति' की टीका के कर्ता का नाम 'सुमति' के स्थान में सन्मति इस कारण दिया होगा क्योंकि यह नाम उन्हे आकर्षक लगा होगा। तत्त्व सग्रह के टीकाकार कमलशील ने पृ० ३८२ मे निम्न पक्तिया दी है : __"तत्र सुमतिः कुमारिलाद्यभिमतालोचनामात्र प्रत्यक्ष विचारणार्थमाह"--सुमति देव ने कुमारिल के पालोचना मात्र प्रत्यक्ष का निराकरण किया है। इससे सुमति देव का समय कुमारिल क बाद होना चाहिये। डा० भट्टाचार्य ने सुमति का समय सन् ७२० के आस-पास का निर्धारित किया है। कर्कराज सुवर्ण के दान पत्र (तामपत्र) मे मल्लवादी के शिष्य सुमति अोर सुमति के शिष्य अपराजित का उल्लेख है, जो मूलसघ के मेनान्वय के थे। शक स० ७४३ (वि० स० ८७८) मे अपराजित को नवसारी की न सस्था के लिये यह दान दिया गया था। सभव है यही सुमति सन्मति-टीका के कर्ता हो ऐसा प्रेमी जी ने जैन साहित्य और हिास के पृष्ठ ८१६ मे लिखा है। पर मेरी राय में अपराजित के गुरू सुमति देव से शान्तरक्षित द्वारा आलोचित समति देव भिन्न ही है। क्याकि शान्त रक्षित का समय सन् ७०५ मे ७६२ तक माना जाता है। इन्होने सन ७४३ मे तिव्वत की यात्रा की थी। इसके पूर्व ही वे अपना तत्त्व मग्रह बना चके होगे। यदि यह विचार सही है तो दोनो सुमति देव एक नहीं हो सकते। तत्त्व सग्रह में उल्लिखित सुमति पूर्ववर्ती है और अपराजित के गुरु सुमति देव का समय सन् ८५३ के लगभग होता है। सुमति देव सुमति देव-यह मूल सघ सेनान्वय के विद्वान मल्लवादि के शिष्य थे। सुमति देव के शिष्य अपराजित थे। जिन्हे शक स० ७४३ (वि० स० ८८७) मे नवमारी जि० मूरत के जैन मन्दिर के लिये एक जमीन दान की गई थी। अतएव सुमति देव का समय अपराजित के समय मे २५ वर्ष कम, वि० स० ८५३ होना चाहिये । अर्थात प्रस्तूत सुमति देव हवी शताब्दी के विद्वान जान पडते है। कुमारसेन इनका स्मरण पुन्नाटमंघीय जिनमेन ने (शक स० ७०५ ई० ७८३) हरिवंशपुराण में निम्न शब्दो में किया है। प्राकुपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ।। चन्द्रोदय के रचयिता प्रभाचन्द्र के पाप गुरू थे। आपका निर्मल सुयश समुद्रान्त विचरण करता था। चामुण्डराय पूराण के १५वे पद्य मे भी इनका स्मरण किया गया है। डा० ए० एन उपाध्याय ने लिखा है कि ये मल गुण्ड नामक स्थान पर आत्म त्याग को स्वीकार करके कोपणाद्रि पर ध्यानस्थ हो गये तथा समाधि पूर्वक मरण किया। शाचार्य विद्यानन्द ने अपनी अष्ट सहस्त्री की अन्तिम प्रशस्ति के दूसरे पद्य में अष्टसहस्त्री को कष्ट सहस्त्री बतलाते हए कूमार सेन की उक्तियों से अष्ट सहस्त्री को प्रवर्धमान बतलाया है । इसमे स्पष्ट है कि कमार १. कष्ट सहस्त्री सिद्धा साप्ट सहस्रीयमत्र मे पुण्यात् । शश्वदभीष्ट सहस्त्री कुमारसनोक्ति वर्धमानार्था ॥२॥
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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