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________________ १३८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ हो धवलाटीका का लिखना प्रारम्भ किया था। जयधवला कार ने एक स्थान पर बप्पदेव का नाम लेकर अपने और उनके मध्य के मतभेद को बतलाया है : चुण्णि सुत्तम्मि बप्पदेवा इरिय लिहिदुच्चारणाए अंतोमुहृत्त मिदि भणिदो। अम्हेहि लिहिंदुच्चारणाए पुण जहण्ण एगसमयो, उ० संखेज्जा समयात्ति परूविदो (जयध० १८५) धवला में व्याख्या प्रज्ञप्ति के दो उल्लेख निम्न प्रकार से उपलब्ध होते हैं। "लोगोवाद वियाह पण्णत्ति वयणादो" टीकाकार ने इस अवतरण से अपने अभिमत को पुष्ट किया है । धवला १४३ एक स्थान पर धवलाकार ने उससे अपने मत का विरोध दिखलाया है एदेण वियाह पण्णत्ति सुत्तेण सह कधं ण विरोहो? ण एवम्हादो तस्स पुधसुदस्स मायरियमेएण भेदमा वण्णस्स एयत्ताभावादो॥" (धवला ८०८) इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि बप्पदेव और उनकी टीका व्याख्या प्रज्ञप्ति का अस्तित्व स्पष्ट है। ठीका की भाषा प्राकृत थी। बप्पदेव ने अपने समय का कोई उल्लेख नहीं किया। खेद है कि ग्रन्थ अनुपलब्ध है। फिर भी अनमान से डा० हीरालाल जी ने बप्पदेव का समय विक्रम की छठवीं शताब्दी बतलाया है। धवलाटीका से तो वह पूर्ववर्ती है ही। संभव है, वह सातवीं शताब्दी की रचना हो। महाकवि धनंजय महाकवि धनंजय-वासुदेव और श्रीदेवी के पुत्र थे। उनके गुरु का नाम दशरथ था। ये दशरूपक के लेखक से भिन्न हैं । ये गृहस्थ कवि थे। इनकी कविता में वैशिष्ट्य है। द्विसन्धान काव्य बनाने के कारण ये द्विसन्धान कवि कहलाते हैं। इस द्विसन्धान काव्य को राघव पाण्डवीय काव्य भी कहा जाता है क्योंकि इसमें रामायण और महाभारत की दो कथाओं का कथन निहित है। भोज (११वीं शती ईसवी के मध्य) के अनुसार द्विसन्धान उभयालंकार के कारण होता है । यह तीन प्रकार का है-वाक्य प्रकरण तथा प्रबन्ध । प्रथम वाक्यगत श्लेष है, द्वितीय अनेकार्थ स्थिति है, तीसरा राघव पाण्डवीय की तरह पूरा काव्य दो कथाओं का कहने वाला है। विख्यात मगणवल्ली ग्रामेऽथ विशेष रूपेण । श्रुत्वा तयोश्च पार्वे तमशेषं बप्पदेवगुरुः । १७३ अपनीय महाबन्धं षटग्वण्डाच्छेष पंच खंडे तु। व्याख्या प्रति च षष्ठं खंडं च ततः मंक्षिप्य ।। १७४ पणां खंडानामिति निष्पन्नानां तथा कपायाख्यप्राभतकम्य च षष्ठि सहस्रग्रन्थप्रमाणयुताम् ॥१७५ व्यालिख प्राकृतभाषारूपां सम्यक्त्वपुगतन व्याख्याम्। अष्टमहस्र नथां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे ।।१७६ २. देखो, षट्खंडागम धवला. पु. १ प्रस्तावना पृ० ५३ ३. नीत्वा यो गुरुणादिशो दशरथे नोपात्तवान्नन्दनः । श्रीदेव्या वसुदेवतः प्रतिजगन्यायस्य मार्ग स्थितः । तस्य स्थायि धनंजयम्य कृतितः प्रादुप्य दुच्चर्यशो, गाम्भीर्यादि गुणापनोदविधिनेवाम्भो निधील्लङघते ॥१४६।।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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