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________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी के आचार्य १३७ भारिणी, और द्र तविलम्बित आदि छन्दों का प्रयोग किया है। कवि को उपजाति छन्द अधिक प्रिय रहा है। इस काव्य के प्रारम्भिक तीन सर्ग बहत ही सरम हैं। रचना स्थल और रचना काल निजाम स्टेट का कोप्पल ग्राम जिसे कोपण भी कहा जाता है, जैन संस्कृति का केन्द्र था। मध्यकालीन भारत के जैनों में इसकी अच्छी ख्याति थी। और आज भी यह स्थान पुरातत्त्वविदों का स्नेहभाजन बना हया है। इसके निकट पल्लन को गुण्डु नाम का पहाड़ी पर अशोक के शिलालेख के समीप में दो पद चिन्ह अंकित हैं। उनके नीचे पुरानी कनडी भाषा में दो लाइन का एक शिलालेख है। जिसमें लिखा है कि 'चावय्य ने जटासिंह नन्द्याचार्य के पदचिन्हों को तैयार कराया था।' किमी महान व्यक्ति की स्मृति में उस स्थान पर जहां किसी साधु वगैरह ने समाधिमरण किया हो। पद चिन्ह स्थापित करने का रिवाज जैनियों में प्रचलित है। कुवलय माला के कर्ता उद्योतन सृरि (७७८ ई०) ने और पुन्नाट संघी जिनमेन (शक सं० १०५) ने वि० सं०८४० के जटिल कवि का और उनके ग्रन्थ का उल्लेख किया है। ६७८ ई० में चामुण्डराय ने भी उल्लेख किया है। और ईसा की ११वीं शताब्दी के कवि धविल ने जटिल मनि और वरांगचरित का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त पम्प (९४१ ई०) ने, नयमेन (१११२ ई०) पार्श्व पंडित (१२०५ ई०) जनाचार्य (१२०६ ई०), गणवर्म (१२३० ई.) पूष्पदन्त पुराण के कर्ता कमलभव (१२३५ ई०) और महावल (१२४५) ई० आदि ग्रन्थकारों ने अपने अपने ग्रन्थों में जटिल कवि और वराँगचरित का उल्लेख किया है इससे कवि की महत्ता का सहज ही पता चल जाता है। साथ ही इन सब उल्लेखों में उनके समय पर भी प्रकाश पड़ता है। डा० ए०एन० उपाध्याय ने वरांगचरित की प्रस्तावना में जटासिंह नन्दि का समय ईसा की सातवीं शताब्दी का अन्त निर्धारित किया है, क्योंकि शकसं० ७०५ में हरिवंश पुराणकार ने उसका उल्लेख किया है। शुभनन्दी-रविनन्दी शभनन्दी-रविनन्दी नामक दोनों मूनि अन्यन्न तीक्ष्ण बुद्धि मूनि और सिद्धांत शास्त्र के परिज्ञानी थे। बप्पदेव गरु ने समस्त सिद्धान्त का विशेष रूप गे अध्ययन किया था। यह व्याख्यान भीमरथि और कृष्ण मेख नदियों के वीच प्रदेश उत्कलिका ग्राम के समीप मगणवल्ली ग्राम में हना था। भीमरथि कृष्णानदो की शाखा है और इनके बीच का प्रदेश अव वेलगांव व धारवाड कहलाता है। वहीं बप्पदेव गुरु का सिद्धान्त अध्ययन हया होगा। इस अध्ययन के पश्चात उन्होंने महाबंध को छोड़ कर शेष पांच खंण्डों पर व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम की टीका लिखी। पश्चात उन्होंने छठे खण्ड को सक्षिप्त व्याख्या भी लिखी। वीरसेनाचार्य ने बप्पदेव की व्याख्या प्रज्ञप्ति को देखकर १. जटामिह नन्दि आनार्य रदव चावायं माडिसिदो। हैदगबाद आरबयोलाजिकल सीरीज मं० १२ (मन् १९३५) में सी. आर कृष्णन चारलू लिखित कोपवल्ल के कन्नड़ शिलालेख । २. एवं व्याख्यान क्रममवाप्तवान् परमगुरु परम्परया। आगच्छन् सिद्धान्तो द्विविधोग्यति निशितबुद्धिभ्याम् । १७१ शुभ-रवि-नन्दि मुनिभ्यां भीमरथि-कृष्णमेखयोः सरितोः । मध्यमविषयेग्मणीयो कलिकायाम सामीप्य ॥१७२
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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